1. चंदन, भस्मलेपन, देवतावंदन, आदि बाह्य उपकरण धर्म नहीं है। समूची सृष्टि जिन सूक्ष्म नियमों के आधार पर शून्य में विलीन न होकर चलती रहती है, उसको धर्म कहते हैं। उन नियमों का मनुष्य के जीवन में उतरना धर्म होता है।
2. धर्म बहुत व्यापक शब्द है। अनेक अर्थ उसमें समाविष्ट हैं। इस शब्द के संबंध में जाने अनजाने अनेक भ्रम आजकल प्रचलित हैं। इन भ्रमों के कारण धर्म शब्द का ठीक बोध होना सामान्य व्यक्ति के लिये कठिन हो गया है। अपने प्राचीन महापुरुषों ने धर्म की व्याख्या अनेक प्रकार से की है। वे सब व्याख्याएँ परस्पर मेल रखती हैं। उन व्याख्याओं में जो सबसे अधिक मान्य और प्रचलित व्याख्या है- यत: अभ्युदय नि:श्रेयससिध्दि: सधर्म:।' (वै.द 1.2)
3. मनुष्य-मनुष्य में भेद उत्पन्न हो गया है और हमारा दुर्भाग्य ऐसा है कि इन भेदों में लोग धर्म को भी घसीट लाये हैं। धर्म सबको एकत्र करनेवाला, सबको श्रेष्ठ बनानेवाला सूत्र है। जिसका कार्य ही यह है कि सभी प्रवृत्तियों का समन्वय कर मनुष्य को एक अत्यंत उत्कृष्ट विकसित अवस्था प्राप्त करा देना। पर लोग धर्म का नाम लेकर उसकी आड़ में मनुष्य के बीच भेदों को उग्र, उग्रतर और उग्रतम बनाते जा रहे हैं। यह विभीषिका आज जगत् के सामने खड़ी है।
4. हमारी सभी प्रवृत्तियाँ और विषय-भोग एक ओर धर्म तथा दूसरी ओर मोक्ष के बीच सधे हुए हैं। जैसे दोनों तटों के बीच बहती नदी जीवनदायिनी होती है, परंतु उनका उल्लंघन करते ही वह विनाशकारी हो जाती है। ठीक यही स्थिति मानव जीवन के प्रवाह की है। धर्म और मोक्ष के बीच बहता जीवन प्रवाह व्यक्ति व समाज दोनों के लिये सुखदायी होता है।