1. कोई कहेगा कि विदेशी शासन में रहते समय की कल्पनाएँ और आज की कल्पनाएँ समान कैसे रह सकती हैं? इस का उत्तार यह है कि राष्ट्र-कल्पना परिस्थिति के अनुसार बदलनेवाली वस्तु नहीं है। मनुष्य का मनुष्यत्व नौकरी पर निर्भर नहीं करता। किसी ने अपना व्यवसाय बदला तो उसका शरीर और गुणधार्म नहीं बदलता। विदेशी सत्ता रहने से उस सत्ता के सहारे ही अन्य समाज उद्दण्ड होते रहे इसलिये हिंदू-राष्ट्रवाद का मंडन प्रतिक्रियात्मक बात समझी गई। हिंदू-राष्ट्र की कल्पना यह एक सत्य है, इस दृष्टि से संघ ने उस भावना का जागरण किया। विदेशी शासन से संघर्ष रहते हुए भी हिंदू-राष्ट्रीयत्व की घोषणा संघ ने की, उस भावना की जागृति से समाज संगठित कर बलशाली और चैतन्ययुक्त करने का प्रयास किया। आज जब विदेशी सत्ता नहीं रही है तब ये प्रयास अधिक जोर से होने चाहिये, यही विचार परिस्थिति में हुए स्थूल परिवर्तन के कारण अपने अंत:करण में आना चाहिए। आज विदेशी सत्ता चली जाने से हिंदुस्थान के राष्ट्रीय स्वरूप में कुछ भी अंतर नहीं पड़ा है। शरीर वही है। जीवन के अधिष्ठान में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। राष्ट्र-धारणा स्थायी रख कर, अन्यान्य समाज के व्यवहार परख कर, अपना मार्गक्रमण करने में ही राष्ट्र की भलाई हैं।
2. हमारे शासन का स्वरूप पंचायती था और उसकी मूल इकाई ग्राम थी। जन-मन की भावना को व्यक्त करनेवाले प्रतिनिधि पंचों को हमने परमेश्वर का ही रूप माना। पंच-परमेश्वर की कहावत इसका प्रमाण है। यह हमारी राज्य रचना का अधिष्ठान है, जो नीचे से विकसित होता हुआ ऊपर तक चलना चाहिए। इस प्रकार के प्रतिनिधि समाज की प्रकृति व्यक्त करते हैं और जब वे एकत्र आते हैं तो राष्ट्र की प्रकृति का समष्टि रूप खड़ा हो जाता है। इस प्रकार के समूहों के, (जिन्हें वर्ग, गिल्ड, सिंडिकेट या ट्रेड-यूनियन चाहे जो नाम दें) प्रतिनिधियों द्वारा बना हुआ केंद्रीय शासन ही वास्तव में सब के हितों की रक्षा और उनके वैशिष्ट्य के विकास में सहायक हो सकता है।
3. एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी व्यक्ति में समानता भी रहती है। हमें इन दोनों गुणों का इस प्रकार सामंजस्य करना होगा कि उसके व्यक्तित्व का विकास तो हो, किन्तु वह विकास उसके सामूहिक जीवन का हितविरोधी न बने। वैसे ही समानताजन्य एकीकरण, व्यक्ति की विशेषताओं के विकास का मार्ग प्रशस्त करे, उसके विनाश का कारण न बने। अत: समान गुणधार्मवाले व्यक्तियों के समूह बनाकर समूह के रूप में उन्हें स्वतंत्रता दी जाए, जिससे वे समाज की भलाई के लिये प्रयत्नशील हों। किन्तु प्रत्येक व्यक्ति के लिये यह भी आवश्यक हो कि वह समूह के नाते ही खड़ा हो। यह व्यवस्था चाहे मानव की अंतिम अवस्था हो या सीढ़ी, किन्तु यही यथार्थ है। अखिल मानव को इस पध्दति का पालन करना होगा। दुनिया के लोगों ने जो प्रयोग किये हैं, वे भी धीरे-धीरे व्यक्तिस्वातंत्र्य और सामूहीकरण के सामंजस्य की आवयश्कता का अनुभव करने लगे हैं। वैज्ञानिक आधार पर इससे उत्कृष्ट सामंजस्य की व्यवस्था और कोई नहीं हो सकती।
4. जो तत्व व्यवहार में नहीं आता उसे तत्त्व ही नहीं मान सकते। क्योंकि जो व्यवहार में नहीं है, उस तत्त्व की पतंग उड़ाने से क्या लाभ, तत्त्व व्यवहार में आना ही चाहिये। अपने पूर्वजों का इस पर बड़ा आग्रह था। उन्होंने कहा कि 'ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या' इस तत्त्व का यदि मरने के बाद ही अनुभव होता है तो उसका अनुभव हम नहीं करेंगे। इस जीवन में जीते-जागते नित्य-प्रति के व्यवहार में यदि उसकी अनुभूति आती है तब तो वह सत्य, अन्यथा ग्रहण करने के योग्य नहीं। इसलिये उन्होंने कहा कि मरने के बाद मिलने वाले स्वर्ग पर अपना विश्वास नहीं। वह है या नहीं, कौन जाने? जिस बैंक का नाम सुना नहीं उसकी हुंडी नहीं चाहिये। हमें तो स्वर्ग का भी इसी जीवन में अनुभव चाहिए। उसके अनुसार व्यवहार परिवर्तित होना चाहिए। इसी दृष्टि से विचार कर हम कहते हैं कि यदि तत्त्व ठीक है तो उसके अनुसार व्यवहार करो। व्यवहार के लिये तत्त्व को मरोड़ना नहीं। तत्त्व के साथ व्यवहार का तद्रूप होना आवश्यक है। इसी बात को लेकर तत्त्व को व्यवहार में लाकर हम इतना सुधार कर पाए हैं, इतना अच्छा वायुमंडल, जिसकी एक झलक हमें इसी शिविर में दिखाई देती है, उत्पन्न कर पाए हैं। आज देश में सर्वत्र एक भाषा-भाषी दूसरे भाषा-भाषी से बात करते समय सौहार्द की दृष्टि से नहीं देखता। परंतु अपने यहाँ भिन्न भाषा-भाषी स्वयंसेवक एकत्र होने के बाद भी एक-दूसरे के बारे में हीन विचार नहीं रखते। हमने अपने तत्त्व में कहा कि यह हिंदूसमाज हमारा है, एक है और उसी तत्त्व के अनुसार हमने अपने व्यवहार को मरोड़कर कैसा भव्य स्वरूप प्राप्त किया है। उस स्वरूप में दिखाई देता है कि किसी भी भाषा-भाषी की हम अवहेलना नहीं करते।
5. यदि हमारे मन में विकार नहीं है, हमारी श्रध्दा का केन्द्र नहीं हिला है, तो हमारे मन में झंझावातों में उड़ने की प्रवृत्ति पैदा नहीं हो सकती। राष्ट्र का चैतन्य किसी न किसी रूप में प्रकट होगा ही। बीज बो दिया है, वट वृक्ष अवश्य ही खड़ा होगा। सम्पूर्ण भारत इसके नीचे आएगा। स्थान-स्थान पर नई जड़ जमेगी। इस निश्चय पर अडिग होकर चलेंगे तो संकट नहीं आ सकता। संकट तो अधूरी शक्ति पर आता है, पूर्ण पर नहीं। एकात्मता के आधार पर पूर्ण नीतिमत्ता से उसको प्रबल एकसूत्र में संगठित किया तो उस पर कोई संकट नहीं आएगा, बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र-जीवन उसकी प्रेरणा से चलेगा।
6. स्वराज्य मिला है, अप्राप्य प्राप्त हुआ है परंतु प्राप्त का रक्षण करना कठिन काम है। इसके लिये विच्छिन्नता नष्ट कर स्वाभाविक राष्ट्रीयता के साक्षात्कार से सामर्थ्य का आविष्कार करना आवश्यक है। सही राष्ट्र-भावना जागृत नहीं की, वह भावना अस्पष्ट या विकृत रही तो राष्ट्र हमेशा के लिये बंधन में जकड़े जाने का भय सदा बना रहेगा। जिस दुर्बलता के कारण मूलत: हम अपनी स्वतंत्रता से वंचित हुए उसे दूर करना चाहिये, विच्छिन्नता समाप्त करनी चाहिये, सम्यक् राष्ट्र-दृष्टि का अभाव है तो उसे निर्माण करना चाहिए। संकुचित स्वार्थ का प्राबल्य समाप्त करना चाहिए।
7. स्वराज्य-प्राप्ति एक घटना है, क्रिया है। स्वतंत्र समाज-जीवन सुरक्षित और संपन्न रखना चिरंतन महत्त्व का प्रश्न है। उसके लिये राष्ट्र सदैव सिध्द रहना चाहिए। वह सिध्दता रहने के लिये राष्ट्र-जीवन में से हानिकारक अवगुण मिटाकर सुसूत्र, सामर्थ्यशाली समाज-जीवन निर्माण करने की दृष्टि से अपना कार्य खड़ा किया गया है। हिंदू-राष्ट्र-जीवन की कल्पना निर्भयपूर्वक सामने रखकर उसकी गौरववृध्दि के लिये सारा समाज एकसूत्र में संगठित करने का कार्य अपने सामने है। इसलिये संघ के नाम सहित प्रत्येक बात का सूक्ष्मता से विचार कर कार्य की रचना की गई। सुस्पष्ट राष्ट्र-कल्पना सामने रखकर, स्वार्थमूलक भावना को तिलांजलि देकर, भेद मिटाकर, एक प्रभावशाली समाज-जीवन निर्माण करने की चेष्टा चालू हुई।
8. हमारे देश ने लोकतान्त्रिक प्रणाली को अपनाया है; परन्तु इस व्यवस्था की सफलता के लिये आवश्यक है कि जनसामान्य को पर्याप्त प्रशिक्षित एवं प्रबुध्द बनाया जाए। केवल अक्षरज्ञान देने से उद्देश्य प्राप्ति नहीं होगी। हमारे राष्ट्रजीवन के राजनैतिक, आर्थिक आदि विविध पक्षों के विषय में दायित्व एवं भूमिका के प्रति लोगों को जागरूक बनाना होगा।
9. बुध्दिमान् और परिपक्व व्यक्ति केवल मात्र परिस्थितियों से प्राप्त प्रतिक्रिया से प्रभावित होकर कार्य नहीं करते, वे परिस्थितियों को अपना दास बनाने की दृढ़-शक्ति लेकर साहसपूर्वक कार्य करते हैं। मनुष्य बोल कर अपनी स्वयं की इच्छा व्यक्त करता है, जब कि एक निष्प्राण पहाड़ी से केवल प्रतिध्वनि निकलती है।
10. हमारी संस्कृति के प्राचीन एवं जीवनदायी लक्षणों को पुन: तारुण्य प्रदान करने के कार्य की अविलंब आवश्यकता और सर्वोपरि महत्ता हमारे राष्ट्र के वर्तमान सन्दर्भ में ही नहीं है, वरन् अन्तर्राष्ट्रीय सन्दर्भ में भी है। हमारी सांस्कृतिक दृष्टि को ही, जो मनुष्य के बीच प्रेम एवं सामन्जस्य के लिये सच्चा आधार प्रदान करती है और जीवन के सम्पूर्ण दर्शन को मूर्त करती है, आज के इस युध्द से ध्वस्त हुए विश्व के सामने प्रभावी ढंग से रखने की आवश्यकता है।
11. हम अधिक से अधिक भौतिक संपत्ति का अर्जन करें, जिससे कि समाज के रूप में जो ईश्वर है, उसकी सेवा यथासंभव श्रेष्ठ रीति से कर सकें और उस सम्पूर्ण सम्पत्ति में से हमें केवल उतना ही अपने लिये उपभोग में लाना चाहिये जितने के बिना हमारी सेवा की क्षमता में रुकावट आती हो। इससे अधिक पर अधिकार जताना या अपने उपयोग में लाना निश्चय ही समाज की चोरी का कार्य है।
12. हमारी संस्कृति में केवल ऐसे ही व्यक्तियों की पूजा की गई है, जिन्होंने अपनी असामान्य योग्यता और साहस के द्वारा गरजते हुए समुद्री तूफान और बवण्डरों की छाती पर चढ़कर विजय प्राप्त की और अन्त में परिस्थितियों के प्रतिकूल प्रवाह को अपने पक्ष में करने में समर्थ हो गये। वे अपने समय के निर्माता थे, उसकी निर्मिति मात्र नहीं। यह उन सभी महापुरुषों के विषय में है, जिन्हें हमारी राष्ट्रीय परम्परा में अवतार समझा गया है।
13. संसार दुर्बल के तत्वज्ञान को चाहे वह कितना ही उदात्त क्यों न हो सुनने को तैयार नहीं है। संसार तो केवल शक्तिशालियों की पूजा करता है।