संगठित जीवन से ही समाज में शक्ति निर्माण होगी। स्वावलम्बन एवं आत्मनिर्भरता के साथ रहने के लिए शक्ति चाहिए। शक्ति होगी तो सब प्रकार की प्रगति होगी, सारे संकटों से मुक्ति तथा सम्मान की प्राप्ति होगी। उसी के आधार पर समाज अपने परिश्रम तथा स्वावलम्बन से सब प्रकार का वैभव अर्जित कर सकता है। स्वत: की शक्ति न रहे तो दूसरों के आगे याचना करनी पड़ती है, जो अत्यन्त लज्जास्पद तो है ही; परन्तु परिणाम में घोर हानिकारक भी है। आजकल कई लोग बड़े-बड़े सिध्दांत बताकर कहते हैं कि वर्तमान युग में शक्ति की उपासना की कोई आवश्यकता नहीं है। कई लोग सोचते हैं कि यदि हम संसार में सबके साथ प्रेमपूर्वक भाई-चारे से रहें और किसी के ऊपर क्रोध न करें तो दूसरा भी हमारे साथ वैसा ही व्यवहार करेगा। वे यह प्रमाण देते हैं कि पूर्वकाल में अपने श्रेष्ठ पूर्वजों ने कहा है कि क्रोधरहित होकर क्रोध को जीतना चाहिए और यदि कोई क्रोध करता है तो उसके साथ प्रेम का व्यवहार करना चाहिए। जहाँ सूखी घास नहीं वहाँ चिंगारी पड़े तो जलने के लिए कुछ भी न होने से वह अपने आप बुझ जाती है। वैसे ही क्रोध के प्रति शांत रहने से क्रोध ठंडा पड़ जाता है। परन्तु इस जगत् का अपना अनुभव अलग है। हम सबसे मित्रता करने का विचार करें भी तो भी दूसरे हमसे मित्रता करने के लिए तत्पर नहीं है। श्रेष्ठ लोगों का एक-आध सिध्दांत व्यक्तिशः सिध्द हो जाता होगा, परन्तु पूरे समाज और राष्ट्र की दृष्टि से ऐसा कभी नहीं हुआ है। हमारी शांति और समृध्दि को नष्ट करने के लिए आक्रमणकारी आते रहे। आधुनिक काल में भी राष्ट्रविरोधी प्रवृत्तियों को अनुनय और तुष्टिकरण द्वारा शान्त करने का भरसक प्रयत्न हुआ। परन्तु हमारे नेताओं को सफलता नहीं मिली। आज भी हमारे लाख शांति-प्रयत्नों के बावजूद चार बार हमारे देश पर आक्रमण हो चुके हैं।