अस्पृश्यता
श्रीगुरुजी (हिंदी)   27-Oct-2017
जातिप्रथा की सब से भयानक उपज अस्पृश्यता की रूढ़ी है। हिंदू धर्म तत्त्वज्ञान सभी जीवों में एक ही चैतन्य, आत्मतत्त्व देखने को कहता है। सभी मानवों में ईश्वर का निवास देखने को कहता है। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं - 'सर्वस्य चाहं हृदि संन्निविष्टो' - सभी के हृदय में मेरा निवास है। इतना श्रेष्ठ तत्त्वज्ञान रहते हुए भी अपने ही समाज के अंग रहे करोड़ों बंधुओं को 'अस्पृश्य' माना गया। उनको गांव के बाहर रखा गया। उनका स्पर्श तथा छाया भी अपवित्र मानी गयी। उन पर सामाजिक दासता थोपी गई। उन्होंने कौन सा व्यवसाय करना, कौन से कपड़े-गहने पहनना, कहाँ रहना, क्या खाना इस संदर्भ में कड़े नियम बनाए गए। उनका कठोरता से तथा निर्दयता से पालन किया गया। अछूत बंधु की अवस्था जानवर से भी निकृष्टतम की गई। इसमें सबसे बुरी बात यह रही कि अस्पृश्यता को ही धर्म माना गया। अस्पृश्यता की रूढ़ी का पालन नहीं करना याने धर्मद्रोही वर्तन करना यह आम धारणा बनाई गई। यह धारणा लोगों के दिलो-दिमाग पर छाई रही। अस्पृश्यता की रूढ़ी से श्री गुरुजी अत्यंत दु:खी रहा करते थे। इस कुप्रथा को अपने समाज में से जड़ से निकालकर कैसे फेंके इसकी चिंता उनके अंत:करण में सदैव रहा करती थी। अस्पृश्यता की रूढ़ी को उन्होंने तीन खेमों में बाँटा। एक है सवर्ण समाज जो अस्पृश्यों को अस्पृश्य कहता है। दूसरा है अस्पृश्यता का शिकार बना अस्पृश्य समाज जो खुद को अस्पृश्य समझता है और तीसरा है धार्माचार्योंका वर्ग जो इस रूढ़ी को धार्मिक मान्यता (सँक्शन) प्रदान करता है। श्री गुरुजी ने इन तीनों मोर्चों पर ऐतिहासिक कार्य करके समाज में समरसता लाने का प्रयास किया।
 
अस्पृश्यता को परिभाषित करते समय श्री गुरुजी का कथन है - ''सवर्णों के मन के क्षुद्र भाव का नाम अस्पृश्यता है।'' दूसरे शब्दों में अस्पृश्यता एक मानसिक विकृति है। मानसिक सुधार संस्कारों द्वारा ही संभव है। संस्कार एकात्मता का, एकरसता का, भ्रातृभाव का, सेवाभाव का निरंतर करना चाहिए। संघ शाखा की कार्यपध्दति इस में अद्वितीय यश प्राप्त कर चुकी है।