1. यह सुनिश्चित है कि किसी भी प्रकार की प्रतिकूल परिस्थिति में साहस के साथ अपना मार्ग निकालते हुए, सब प्रकार के संकटों को कुचलते हुए तथा उनकी परवाह न करते हुए, संघ अपने विशिष्ट मार्ग से निरन्तर प्रगतिपथ पर अग्रेसर रहेगा। हम पर जितने आघात होंगे उतनी ही अधिक शक्ति से रबर की गेंद के समान उछल कर ऊपर ही उठेंगे। हमारी शक्ति अबाधित रूप से बढ़ती ही जायेगी और एक दिन वह सारे राष्ट्र में व्याप्त हो जायेगी।
2. स्वराज्य-प्राप्ति एक घटना है, क्रिया है। स्वतंत्र समाज-जीवन सुरक्षित और संपन्न रखना चिरंतन महत्व का प्रश्न है। उसके लिये राष्ट्र सदैव सिध्द रहना चाहिए। वह सिध्दता रहने के लिये राष्ट्र-जीवन में से हानिकारक अवगुण मिटाकर सुसूत्र, सामर्थ्यशाली समाज-जीवन निर्माण करने की दृष्टि से अपना कार्य खड़ा किया गया है। हिंदू-राष्ट्र-जीवन की कल्पना निर्भयपूर्वक सामने रखकर उसकी गौरववृध्दि के लिये सारा समाज एकसूत्र में संगठित करने का कार्य अपने सामने है। इसलिये संघ के नाम सहित प्रत्येक बात का सूक्ष्मता से विचार कर कार्य की रचना की गई है।
3. समष्टि-जीवन की भावना के आधार पर निर्मित संगठन से उत्पन्न सामर्थ्य के भाव या अभाव में ही स्वतन्त्रता का भाव या अभाव होता है। जिस परिश्रम से स्वतन्त्रता प्राप्त की जाती है उसकी रक्षा के लिये उससे अधिक परिश्रम की आवश्यकता है। इतना ही नहीं, तो राष्ट्र का गौरव, मान, सम्मान और वैभव भी उस समाज के संगठन पर ही निर्भर है। इस कार्य में परिस्थिति के कारण परिवर्तन की आवश्यकता नहीं होती। इसीलिये उन्होंने संघकार्य को परिस्थिति-निरपेक्ष कहा। यह कार्य परिस्थिति की प्रतिक्रिया से उत्पन्न नहीं हुआ, अपितु इसका आधार भावात्मक है। अपने समाज को सुसंगठित करने के लिये, राष्ट्र के प्रवाह को अखंड बनाये रखने के लिये ही इस कार्य का निर्माण हुआ है।
4. इस विशाल देश में भिन्न-भिन्न भाषाओं और रीति-रिवाजों से युक्त होते हुए भी हम एक समाज के अंग हैं और वह हिंदू समाज है। वह भारत का समाज है, इस भूमि का समाज है। उसका जीवन इस भूमि के साथ मिला हुआ है। भारत का इतिहास याने हिंदू समाज का इतिहास है। अर्थात् भारत का जीवन हिंदू का जीवन है। भारतीय राष्ट्र हिंदू-राष्ट्र के नाते जीवन व्यतीत करने की बात हमने स्पष्ट रूप से, निर्भयतापूर्वक, बिना किसी हिचकिचाहट के, दूसरों की टीका का भय पाले बिना पूर्ण विश्वास के साथ रखी तथा इस सत्य को संसार से भी मान्यता प्राप्त करा लेने के लिये हमने आग्रहपूर्वक इसका प्रतिपादन किया। उसे सिधद करने तथा प्रकट करने के लिये ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का निर्माण हुआ।
5. सप्त रंगों के सम्मिश्रण से जैसे शुभ्र प्रकाश निर्माण होता है, वैसे ही खान-पान, भाषा, वेश-भूषा आदि की विविञ्ता से हमारा जीवन एकात्म रूप से प्रकाशित हुआ है। इसी का नाम भावनात्मक एकता है। यह एकता, सौदेबाजी से निर्माण नहीं होती। भावनात्मक एकता की आधारशिला है, अंत:करण में समान भावनाओं की विद्यमानता। गहन चिंतन और निकट संपर्क से ही इस भावना की अनुभूति संभव है। सबको यह अनुभूति हो सके, इसी दृष्टि से संघकार्य की रचना की गई है। विविधता में एकता का दर्शन करानेवाली संघ की कार्यप्रणाली बेजोड़ है। दैनिक शाखा के कार्यक्रम में व्यक्ति रम जाता है और उसके अंत:करण में एकता के भाव जाग उठते हैं।
6. यह राष्ट्र जो अपने सामने खड़ा है वही परमात्मा का व्यक्त रूप है। भगवान के स्वरूप का विवरण करते हुए अपने यहाँ स्पष्ट कहा गया है 'सहस्रशीर्षा पुरूष: सहस्राक्ष: सहस्रपाद्' (ऋग्वेद 10-90-1)। व्याख्या के अनुसार समाजरूपी भगवान की पुन:स्थापना जगत् में करने का जो हमारा संकल्प है, वही धर्म है, अन्य सब अधर्म है। इसी नियम के अनुसार अपने कार्य में आनेवाली बाधाओं को हटाने की दृष्टि से जो काम किया जाए वही धार्म है।
7. हमारा काम गुणात्मक है। उसकी तुलना क्षेत्रात्मक कार्यों से नहीं की जा सकती। हमें तो वह शक्ति निर्माण करनी है जो नियंत्रित और अनुशासित हो। जिसके एक शब्द पर बड़े से बड़ा कार्य आरम्भ हो, इच्छा करने पर उसका संवरण भी किया जा सके। हमारा लक्ष्य केवल लोकजागरण करना ही नहीं हैं। कभी-कभी लोग सोचते हैं, उससे भी बड़ा काम खड़ा हो जाता है। किन्तु वह जितनी जल्दी खड़ा होता है, उतनी ही जल्दी नष्ट भी हो जाता है। सन् 1921 का असहयोग आन्दोलन और 1942 का 'भारत छोड़ो' आन्दोलन इसके अच्छे उदाहरण है। एक बार आन्दोलन शुरू हुआ कि वह कौनसी दिशा लेगा, यह कहा नहीं जा सकता। उस पर नियंत्रण रहता नहीं। इन आंदोलनों से ध्वंस तो हो सकता है, निर्माण नहीं। सामूहिक निर्माण शक्ति की दृष्टि से अपना कार्य लोकक्षोभात्मक कार्य से उत्पन्न शक्तिओं से अधिक है। अपना कार्य नियंत्रित कार्यशक्ति निर्माण करने का है, लोकक्षोभ उकसाने का नहीं। यदि लोकक्षोभ पैदा करने की आवश्यकता हुई तो उसे काबू रखने की पात्रता भी हमें निर्माण करना है।