अति प्राचीनकाल से जिस स्वरूप को हमने अपने अन्त:करण में धारण किया, वंश-परंपरा से जिसकी हम लोग उपासना करते आए हैं, वह चित्र अत्यन्त विशाल है। उत्तर में हिमालय की समस्त शाखाओं-उपशाखाओं से घिरे हुए भू-प्रदेश से लेकर दक्षिण महासागर तक और उसके छोटे-बड़े द्वीप-समूहों को मिलाकर इस पृथ्वी का जो अंश बनता है, वही अपनी इस पवित्र मातृभूमि का यथार्थ रूप है। हिमालय की मुख्य पर्वत श्रेणियों को पार कर उत्तर में जाने पर पवित्र कैलास तथा मानसरोवर हैं। मानसरोवर से निकला हुआ ब्रह्मपुत्र नद दक्षिण में मुड़कर, भूमि को उर्वर बनाता है। इन पवित्र क्षेत्रों को क्या कोई अपने देश की सीमा के बाहर रखने की कल्पना कर सकता है? त्रिविष्टप, जिसे आज तिब्बत कहा जाता है, अपनी भूमि का हिस्सा है, उसी प्रकार कन्दहार, हमारा पुराना गांधार है। जहां तुरंग यानी अच्छे घोड़े मिलते थे, वह तुरंगस्थान आज का तुर्कस्थान है। ईरान तो पुराना आर्यान ही है और अफगानिस्तान पुराना उपगयास्थान है। इस प्रकार अपनी भूमि का विस्तार तथा उसका पूर्ण रूप ध्यान में रखकर मातृभूमि का चिंतन करना चाहिए।