सेवा
श्रीगुरुजी (हिंदी)   27-Oct-2017
सामाजिक समरसता के संदर्भ में सेवाकार्य का योगदान अनन्यसाधारण है। समाज में सेवा के कार्य कई प्रकार चलते रहते हैं। उनकी प्रेरणा भी भिन्न -भिन्न प्रकार की रहती है। अनेक सेवाकार्य पुण्यसंचय के हेतु से होते हैं। किसी सेवा कार्य की प्रेरणा भूतदया होती है। कई लोग प्रसिध्दि पाने के लिए सेवा कार्य करते हैं। किसी को सेवाकार्य से चरितार्थ चलाना होता है। इसलिए सेवा कार्य करते रहते हैं। अन्य कोई राजनीति में प्रवेश पाने के लिए सेवाकार्य एक माध्यम समझते हैं। श्री गुरुजी ने सेवा का एक अतिव्यापक दृष्टिकोण सब के सामने रखा है। श्री गुरुजी के व्यक्तित्व तथा सोच पर स्वामी विवेकानंदजी के विचारों का गहरा प्रभव था।
 
स्वामी विवेकानंदजी ने ''दरिद्र नारायण' यह शब्द दिया है। दरिद्र आदमी में नारायण का वास है ऐसा मान कर शिवभाव से जीव की सेवा करनी चाहिए। श्रीगुरुजी इसी मार्गपर चलनेवाले एक साधक थे। वे कहते हैं, ''जितने दीन-दुखी मिलें वे सब भगवान के स्वरूप हैं और इस प्रकार भगवान ने अपनी सेवा का अवसर हमें प्रदान किया है, ऐसा समझें और इस भाव से उनकी प्रत्यक्ष सेवा करने के लिए उद्यत हों।''
(श्रीगुरुजी समग्र: खंड 5, पृष्ठ 36)
आज समाज में दु:ख-दैन्य प्रचुर मात्रा में है। एक तरफ ऐसा समाज का वर्ग है जिसके पास साधनसंपत्ति की कमी नहीं तो दूसरी जगह ऐसा वर्ग है जो सर्वथा निर्धन है। एक समय का पेट भी वे भर नहीं पाते। ऐसे बंधुओं का श्री गुरुजी को अहोरात्र स्मरण रहा करता था। किसी एक कार्यकर्ता ने बड़ी आत्मीयता से श्री गुरुजी को शुध्द घी का एक डिब्बा भेज दिया और लिखा कि शरीर स्वास्थ्य के लिए रोज शुध्द घी खाना चाहिए। उसको पत्र लिखते हुए श्री गुरुजी लिखते हैं कि अपने देश में करोड़ों बंधुओं को एक समय का भोजन तक नहीं मिलता, ऐसे में रोज शुध्द घी खाना मेरे लिए संभव नहीं है। इसी कारण श्रीगुरुजी केवल एक समय ही भोजन करते थे। समरसता का इससे बढ़कर श्रेष्ठ आचरण और कौनसा हो सकता है?
भूखे, नंगे, प्यासे, बीमार गली-गली में सड़क के किनारे दिखते हैं। उनका स्मरण रखते हुए श्री गुरुजी कहते हैं, ''इस स्थिति में हम सब ऐसा प्रयत्न करें कि मनुष्य को भूखा नहीं रहने देंगे। प्रत्येक को ऐसा समझना है कि किसी एक पीड़ित बंधु का भार उसके ऊपर ही है।'' अपना सच्चा धर्म क्या है इसका भी बार-बार उन्होंने स्मरण कराया है। ''समाज की ओर दुर्लक्ष करना अपना धर्म नहीं। कई बार लोग धार्मिक बनने का अर्थ विचित्र- सा लगा लेते हैं। वे त्रिपुंड लगाते हैं, चंदन लगाते हैं, घंटी बजा-बजाकर लंबी-चौड़ी पूजा करते हैं, परंतु समाज का ध्यान नहीं लगाते। यह सब धर्म नहीं, यह तो धार्मिक बनने का आभास उत्पन्न करना मात्र हुआ। हमारा सच्चा धर्म तो यही है कि यह समाज अपना है, अत: हम इसका चिंतन करें और हर एक आदमी स्वयंभू पोषण कर सके - ऐसा स्वाभिमान उसमें निर्माण करें।''
(श्रीगुरुजी समग्र: खंड 5, पृष्ठ 36)
नर को भगवत्स्वरूप मानकर उसकी सेवा करनी चाहिए यह श्री गुरुजी का कथन था। सेवा के माध्यम से क्या होना चाहिए इसको स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं - ''समाज को स्वत्वसंपन्न, उत्कर्षमय, स्वाभिमानी बनाना है। समाज की सुरक्षा के लिए प्रयत्न करना है। इसलिए आवश्यक है कि अपने सब बंधुओं को इन विकृतियों से दूर रखकर, हम सच्ची, हार्दिक तथा आत्मीयतापूर्ण एकता उत्पन्न करें। अंत:करण की आत्मीय भावना थोथी नहीं, सच्ची होनी चाहिए। मुँह में कुछ और मन में कुछ ऐसी दिखावटी सहानुभूति नहीं चाहिए। समाज के प्रत्येक बंधु के लिए हृदय में खरी आत्मीयता का भाव आवश्यक है।''
(श्रीगुरुजी समग्र: खंड 3, पृष्ठ 249)
दूसरे शब्दों में समाज में समरसता लाने के लिए अपने मन का भाव कैसा होना चाहिए इसको श्री गुरुजी ने परिभाषित किया है। सामाजिक समरसता यह मन का गुण है, आत्मीयता के बिना वह उत्पन्न होना संभव नहीं। इसलिए हम देखते हैं कि श्रीगुरुजी बार-बार आत्मीय भावना का स्मरण दिलाते हैं।
हिंदू समाज रचना के अंतर्गत समाज के सभी घटकों में किस प्रकार समरसता भाव का जागरण करना चाहिए यह बात जैसे श्री गुरुजी ने बताई है, उसी प्रकार 'धार्मिक अल्पसंख्य' इन शब्दों से जिनका उल्लेख किया जाता है, ऐसे क्रिश्चियन तथा मुसलमान बंधुओं ने किस प्रकार समाज के साथ समरस होना चाहिए यह भी बात उन्होंने बताई है। वे कहते हैं - ''भारत के अल्पसंख्यकों को अपनी पृथकता की बात न करते हुए राष्ट्रजीवन के साथ समरस होना ही चाहिए। यदि वे अपनी पृथकता की बात सोंचते रहे, तो वह बढ़ती ही जाएगी। यह भी दिखाई देता है कि इस अलगाव को उकसाते रहने से वह बढ़ता ही गया और अब प्रत्येक प्रदेश में 'छोटे पाकिस्तान की' माँग जड़ पकड़ती जा रही है। राजनीतिक स्वार्थ के लिए सत्ताधारी और अन्य राजनीतिक नेता सभी अल्पसंख्यकों को 'अल्पसंख्यक' इस रूप में सिर चढ़ा रहे हैं। इससे अलगाव को निरंतर बढ़ावा मिल रहा है, जो घातक है। राष्ट्र-जीवन के साथ समरस होने तथा पृथकता को सर्वथा त्याज्य मानने से अल्पसंख्यक राष्ट्रजीवन में पूर्णत: विलीन होंगे, यही इस समस्या का हल है। यही कारण है कि अल्पसंख्यकों को मैं यह आवाहन् करता हूँ कि वे हिंदू धर्म में वापस आएँ। उनके पूर्वज हिंदू ही थे और उनके अपने मूल धर्म में वापस आने से वे राष्ट्रजीवन के साथ सुगमता से समरस होंगे। आजकल शुध्दीकरण द्वारा अहिंदुओं को हिंदू धर्म में स्वीकार किया जाता है। किंतु भारत के अधिकांश अहिंदू मूलत: हिंदू रहने के कारण, मैं उसे शुध्दीकरण न कहकर, केवल 'परावर्तन' अर्थात 'स्वपरिवार में वापस आना' यही शब्दप्रयोग करता हूँ।
 
प्रश्न : क्या आपको ऐसा लगता है कि उन्हें हिंदू धर्म में स्वीकार करते समय 'शुध्दीकरण-विधि' की आवश्यकता नहीं है?
श्री गुरुजी : शुध्दीकरण विधि तो हो, किंतु वह केवल यह भावना उत्पन्न करने के उद्देश्य से कि हम हिंदू धर्म में आए हैं। वह एक भावनात्मक आवश्यकता मात्र है। परमेश्वर की आराधना, अपनी-अपनी रूढ़ पुरानी पध्दति के अनुसार ही करें। इसमें कोई आपत्ति नहीं। हिंदू धर्म ने परमेश्वर का अस्तित्व स्वीकार कर लेने के बाद, उसकी पूजा की विविध पध्दतियाँ समाविष्ट कर ली हैं। अत: पुन: हिंदू धर्म में आनेवाले व्यक्तियों को आराधना की जिस पध्दति का अभ्यास पड़ गया है, उसे ही वे आगे भी चालू रखें। इसमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए। तथापि राष्ट्र-जीवन में समरसता और एकात्मता निर्माण करने के बजाय अलगाव और फूट को ही बढ़ावा दिया जाता है और इसके लिए जो लोग कारणीभूत हैं, वे अपने आपको जिम्मेदार कहते हैं। उर्दू भाषा का ही उदाहरण लें। भारत की जो राष्ट्रभाषा है, उसे स्वीकार करने के बजाय उर्दू के लिए राजमान्यता माँगी जा रही है। इसी माँग का समर्थन करनेवाले राजनीतिक नेता ही हैं। तुर्किस्तान में तुर्की भाषा, पर्शिया में फारसी और अरबस्तान में अरबी भाषा ही है। सारांश यह है कि किसी भी प्रकार का अलगाव होना ही नहीं चाहिए। अलगाव रखने देना भी उचित नहीं। उर्दू भाषा को राजमान्यता का प्रश्न ही नहीं उठता। मैं तो यह भी कहता हूँ कि अल्पसंख्यकों ने अपने सामने रुस्तम का आदर्श रखना यह भी अलगाव ही है। रुस्तम अपने देश का तो था ही नहीं, वह मुसलमान भी नहीं था। वह अपने देश का श्रेष्ठ पुरुष नहीं था, इसलिए 'राष्ट्रपुरुष' को जो स्थान प्राप्त होता है, वह रुस्तम को प्राप्त नहीं होना चाहिए। रुस्तम के स्थान पर वे रामचंद्र का आदर्श रखें। जो अपने देश के आदर्श हैं, वे ही उदाहरण के रूप में सामने रखे जाने चाहिए। अब यहाँ से प्रारंभ कर राष्ट्र-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पूर्ण समरसता कैसी हो - यह बतलाने के लिए बुध्दिपुरस्पर मैंने यह एक उदाहरण दिया है। इससे संपूर्ण समरसता का अर्थ योग्य रीति से ध्यान में आएगा।
(श्रीगुरुजी समग्र: खंड 9, पृष्ठ 164-165)