अपना हिन्दू समाज जिन अनेक व्याधियों से पीड़ित है उनमें एक प्रमुख समस्या अस्पृश्यता की है। हिन्दू समाज के माध्यम से राष्ट्रोत्थान में अपना जीवन समर्पित करने वाले श्रीगुरुजी उसे राष्ट्र-जीवन पर एक कलंक मानते थे और उसके उन्मूलन हेतु वे आजीवन प्रयासरत रहे।
किन्तु अस्पृश्यता के उन्मूलन हेतु श्रीगुरुजी के विचार एवं कार्यशैली आधुनिक राजनेताओं की आन्दोलनकारी प्रवृत्ति से सर्वथा भिन्न थी। इस विषय में उनका स्पष्ट कथन यह था कि अस्पृश्यता के मूलाधार को पहचान कर तत्संबंधी उपाय-योजना करने से ही अस्पृश्यता का समूलोच्चाटन किया जा सकेगा। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि अपने अति सुदीर्घकालीन इतिहास में अनेक विकृतियों का शिकार बनता हुआ अपना हिन्दू समाज अस्पृश्यता को धर्म का अंग मान बैठने और उसके उल्लंघन को महापाप समझने की हिमालयी भूल कर बैठा है। इसके साथ ही यह व्याधि हमारे समाज की रग-रग और नस-नस में इतनी गहरी बैठ चुकी है कि गुरु नानकदेव, आचार्य रामानुज, गुरु बसवेश्वर, शंकरदेव, स्वामी दयानन्द, नारायण गुरु, विनायक दामोदर सावरकर, गांधीजी सरीखे अन्य अनेक महापुरुषों के अथक प्रयास भी अभी तक अपर्याप्त सिध्द हुए हैं। दुर्भाग्य यह है कि हमारे धर्माचार्यों ने भी इस अस्पृश्यता के कलंक की निन्दा और भर्त्सना नहीं की, उल्टे उनमें से अनेकों ने अपने आचरण और व्यवहार से उसको प्रश्रय ही दिया है।
धर्माचार्यों का दायित्व
मिथ्या धर्माचरण से उत्पन्न इस घातक सामाजिक बुराई को भलीभाँति पहचान कर उसके निदान हेतु श्रीगुरुजी ने स्पष्ट शब्दों में घोषणा की कि हिन्दू समाज के धर्म-प्रवक्ता के रूप में जन-साधारण द्वारा मान्य परम्परागत साधु-सन्तों और संन्यासियों आदि को ही इस अधार्मिक आचरण को समाप्त करने के लिए अग्रसर होना चाहिए।
सच्ची धर्मभावना
अस्पृश्यता उन्मूलन हेतु उसका निदान प्रस्तुत कर ही श्रीगुरुजी ने अपने दायित्व को पूर्ण हुआ नहीं मान लिया। उनकी प्रेरणा से विक्रमी संवत् 2021 तदनुसार सन् 1964 में भगवान श्रीकृष्ण के पावन जन्मदिवस पर प्रस्थापित विश्व हिन्दू परिषद् ने संवत् 2026 (सन् 1969) में कर्नाटक के उडुपी नामक स्थान पर हिन्दू समाज के शैव, वीर शैव, माधव, वैष्णव, शाक्त, जैन, बौध्द, सिख, आर्यसमाजी आदि समस्त सम्प्रदायों और पंथों के धर्माचार्यों का एक सम्मेलन बुलाया। श्रीगुरुजी उक्त सम्मेलन में उपस्थित थे। समस्त धर्माचार्यों ने हिन्दू समाज के समस्त घटकों से अस्पृश्यता उन्मूलन का आह्वान करते हुए सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें घोषणा की गई थी कि :
''समस्त हिन्दू-समाज को अविभाज्य एकात्मता के सूत्र में पिरोकर संगठित करने एवं स्पृश्य-अस्पृश्य की भावना व प्रवृत्ति से प्रेरित विघटन को रोकने के उद्देश्य की प्राप्ति हेतु विश्व भर के हिन्दुओं को अपने पारस्परिक व्यवहार में एकात्मता एवं समानता की भावना को बरकरार रखना चाहिए।''
इसमें सन्देह नहीं कि इस प्रस्ताव को हिन्दू समाज के समस्त मत-पंथों एवं सम्प्रदायों के धार्माचार्यों द्वारा एक स्वर से स्वीकृति दिया जाना इस देश के राष्ट्र-समाज के इतिहास में एक क्रान्तिकारी पग की संज्ञा दी जा सकती है क्योंकि यह घटना-क्रम एक विकृत परम्परा पर सच्ची धर्मभावना की विजय का स्वर्णिम क्षण था।
हृदय परिवर्तन आवश्यक
फिर भी श्रीगुरुजी का यह सुनिश्चित मत था कि उडुपी सम्मेलन में पारित सर्वसम्मत प्रस्ताव एवं निर्देशों को केवल उच्च स्वर से की गई घोषणाओं एवं भाषणों से वास्तविक जीवन में चरितार्थ कर पाना संभव नहीं है। इस हेतु कठोर परिश्रम एवं समुचित प्रचार द्वारा ग्राम-ग्राम और नगर-नगर में घर-घर जाकर प्रत्येक व्यक्ति को इन प्रस्तावों एवं निर्देशों को वास्तविक जीवन में व्यवहृत करने का प्रशिक्षण देना होगा और ऐसा करते समय उन्हें अतीत में हुई गंभीर भूलों के प्रायश्चित अथवा पश्चाताप-जनित विनम्रता के आवश्यक सिध्दान्त तथा जीवन-शैली के रूप में अपनाना होगा। दूसरे शब्दों में इसके लिए जन-समाज के दृष्टिकोण में नैतिक, भावनात्मक एवं हृदय-परिवर्तन करने का पुरजोर आग्रह करना पड़ेगा।
सुनियोजित प्रयास अपरिहार्य
यद्यपि श्रीगुरुजी समाज द्वारा पीछे धकेल दिए गए बन्धुओं के आर्थिक, राजनीतिक उत्थान को अत्यावश्यक मानते थे किन्तु इस संबंध में उनका सुस्पष्ट अभिमत यह था कि यह कार्य शासकीय योजनाओं अथवा राज्य-शक्ति या राजनीतिक दलों द्वारा कदापि संभव नहीं है। इसका कारण यह है कि इन माध्यमों के द्वारा यह तो संभव है कि अपने समाज का अस्पृश्य कहा जाने वाला यह वर्ग आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टि से शेष समाज के समकक्ष आ जाए किन्तु उससे तथाकथित स्पृश्य और अस्पृश्य कहे जाने वाले समाज-बन्धुओं के मध्य विद्यमान भावनात्मक खाईं को घटाया नहीं जा सकेगा। उल्टे वह उनके मध्य विघटन और अलगाव की ही वृध्दि करेगा। अत: उनका कहना था कि वास्तविक हृदय परिवर्तन एवं सच्ची एकात्मता प्रस्थापित करने हेतु स्वत: स्फूर्त श्रम-साध्य कार्य को दैनन्दिन जीवन के व्यवहार में परिलक्षित करना होगा तथा उसके लिए आध्यात्मिक, नैतिक एवं सामाजिक स्तर पर सुनियोजित प्रयास करने होंगे।
आरक्षण का प्रश्न
अस्पृश्य कहे जाने वाले समाज-बन्धुओं को जातीय आधार पर आरक्षण देने की व्यवस्था के संबंध में रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए श्रीगुरुजी का अभिमत था कि सुदीर्घ काल तक ऐसा आरक्षण संबंधित जन-समाज के लिए ही अहितकर होता है क्योंकि यह प्रक्रिया उनमें स्वावलम्बनहीनता बढ़ा कर उन्हें परावलम्बी बना देता है। इसके साथ ही इससे संबंधित वर्ग में निहित स्वार्थ का दुर्गुण बढ़ कर वह अपने-आपको देश के शेष जन-समाज से पृथक् समझने की घातक दुर्भावना से ग्रस्त हो जाता है। स्मरण रहे, भारतीय संविधान प्रारूप समिति के अधयक्ष और भारत के प्रथम विधिमन्त्री डा. भीमराव अम्बेडकर स्वयं भी इसी मत के थे तथा इसीलिए जातीय आधार पर उन्होंने आरक्षण की व्यवस्था मात्र दस वर्ष के लिए की थी।
श्रीगुरुजी का यह भी अभिमत था कि अपने समाज के सभी जातीय वर्गों में अति दयनीय स्थिति में रहने वाले लोग हिन्दू समाज के सभी वर्गों में बड़ी संख्या में विद्यमान हैं। अत: आरक्षण संबंधी विशेष सुविधाओं का आधार आर्थिक स्थिति को बनाकर यह प्रयास किया जाये कि अपने देश में एक भी व्यक्ति भूखा, नगां, जरूरतमन्द और कंगाल न हो। इसमें सन्देह नहीं कि श्रीगुरुजी द्वारा सुझाए गए इस उपाय से जातीय कटुता और वैमनस्य की भावनायें तिरोहित होकर एकात्मता-भाव का निर्माण सरलता से हो सकेगा।
श्री गुरुजी हिन्दू समाज के समस्त बन्धुओं में समरसता प्रस्थापित करने को इतना अधिक महत्व देते थे कि उन्हें हिन्दू समाज के किसी भी एक वर्ग का अपनी मिथ्याभिमानपूर्ण पहचान रखने का भाव स्वीकार्य नहीं था। इसीलिए उन्हें 'हरिजन' शब्द का राग अलापना एवं उस पर बल देते रहना अलगाव की उस कुत्सित भावना को समाप्त करने में सहायक प्रतीत नहीं होता था जिससे उक्त वर्ग के अपने समाज-बन्धु दीर्घकाल से शिकार बने हुए हैं। फलत: श्री गुरुजी ने एक बार गांधीजी से प्रत्यक्ष भेंट में इस विषय पर चर्चा करते हुए उनसे निवेदन किया कि '''हरिजन' शब्द चाहे कितना ही पवित्र क्यों न हो, किन्तु इसका नवीन प्रचलन अलगाववादी चेतना को जन्म देगा और सामाजिक एकता के लिए घातक निहित राजनीतिक स्वार्थ-समूहों का निर्माण करेगा।'' दुर्भाग्यवश गांधीजी ने श्रीगुरुजी के सुझाव को स्वीकार नहीं किया। किन्तु उनकी आशंका सत्य सिध्द हुई है, इसमें संदेह नहीं।
रचनात्मक और संस्कारयुक्त कार्य योजना
जैसा ऊपर कहा जा चुका है अस्पृश्यता निवारण के लिए श्रीगुरुजी रचनात्मक और संस्कारयुक्त कार्य-योजना के पक्षधार थे। उन्हें राजनीतिक दलों और राजनेताओं की आन्दोलनात्मक कार्यपध्दति कतई स्वीकार नहीं थी। उनका सुनिश्चित मत था कि उक्त कार्यपध्दति का उद्देश्य अस्पृश्यता-निवारण न होकर प्राय: अपना निहित राजनीतिक स्वार्थ सिध्द करना होता है। दूसरे, उससे समाज में विघटनकारी प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है।
इस सम्बन्ध में श्रीगुरुजी ने वाराणसी के अन्दर घटित एक प्रसंग का उल्लेख एक बार किया था। एक प्रमुख नेता ने कुछ अहिन्दुओं और अस्पृश्य कहे जाने वाले समाज-बन्धुओं के एक समूह को लेकर काशी विश्वनाथ मन्दिर में बलपूर्वक घुसने का प्रयास किया। मन्दिर के पुजारियों और अन्य श्रध्दालुओं द्वारा उनका उग्र विरोध किए जाने से उनका यह 'अभियान' विफल हो गया। फिर भी यह दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग समाचार-पत्रों में सुर्खियों के साथ प्रकाशित हुआ और उससे उक्त नेताजी का 'राजनीतिक पूंजी' बनाने का मन्तव्य साकार हो गया। कुछ समय उपरान्त जब श्रीगुरुजी अपने प्रवास कार्यक्रम में काशी गए तब उन्होंने काशी विश्वनाथ मन्दिर के पुजारियों से यह जानना चाहा कि उन्होंने उक्त जन-समूह के मन्दिर-प्रवेश का विरोध-प्रतिरोध क्यों किया? इस पर पुजारियों ने उत्तर देते हुए कहा कि ''देखिए, यहाँ प्रतिदिन हजारों भक्तों का तांता लगा रहता है। वे सभी गर्भगृह में प्रवेश करते हैं, पवित्र शिवलिंग का पावन स्पर्श करते हैं और अपनी श्रध्दा-भेंट अर्पित करते हैं। किसी ने आज तक उनसे उनकी जाति, सम्प्रदाय के विषय में कोई पूछताछ नहीं की। परन्तु जब वह नेता अपने प्रचार के ताम-झाम के साथ सारी दुनिया को यह दिखाने आया कि दीन-दलितों के उत्थान हेतु किसी मसीहा का जन्म हुआ है और हम सब अपराधी हैं, तो स्वाभाविक रूप से हमने स्वयं को अपमानित अनुभव किया और उनको उसी भाषा में उत्तर देने का निर्णय किया।''
समाचार-पत्रों द्वारा भ्रम-निर्माण
कहने का तात्पर्य यह है कि इस प्रकार की आन्दोलनकारी और सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने के तौर-तरीकों से अस्पृश्य कहे जाने वाले समाज-बन्धुओं का अपने अन्य समाज-बन्धुओं के साथ एकात्म भाव निर्माण नहीं हो पाता। इसके विपरीत वह कटुता और विघटन बढ़ाने में ही सहायक होता है। इस विषय में समाचार-पत्रों की भूमिका का भी उल्लेख करते हुए श्रीगुरुजी ने सोदाहरण यह स्पष्ट किया था कि उनके द्वारा भी समाचार की समुचित रीति से जाँच-पड़ताल किए बिना ही कई बार 'अस्पृश्यों के साथ सवर्णों द्वारा किए गए घोर अन्याय' के समाचार प्रकाशित कर दिए जाते हैं जिससे सामाजिक तनाव तथा विघटनकारी तत्वों को और अधिक प्रश्रय प्राप्त होता है। इस प्रसंग में श्रीगुरुजी ने एक बार उत्तर प्रदेश के एक ग्राम से संबंधित एक घटना का उल्लेख करते हुए बताया था कि समाचार-पत्रों में बड़े जोर-शोर से यह समाचार प्रकाशित हुआ कि उक्त गाँव में सवर्णों ने हरिजनों पर आक्रमण करके उनके घर जला दिए हैं। किन्तु जब निष्पक्ष पर्यवेक्षकों ने उस गाँव में जाकर वस्तुस्थिति की जानकारी प्राप्त की तब ज्ञात हुआ कि उक्त ग्राम में हरिजनों के अतिरिक्त केवल मुसलमान रहते हैं और वहाँ एक भी सवर्ण हिन्दू का निवास नहीं है। इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि हरिजनों के मकान मुसलमानों द्वारा जलाए गए थे, सवर्ण हिन्दुओं द्वारा नहीं।
गांधीजी के सुखद आश्चर्य
दूसरी ओर हम यह देखते हैं कि श्री गुरुजी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विषय में थोड़ा सा भी ज्ञान रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति इस तथ्य को भलीभांति जानता है कि श्रीगुरुजी द्वारा अस्पृश्यता उन्मूलन के संबंध में अभिव्यक्त एवं व्याख्यापित सकारात्मक और रचनात्मक पध्दति से समाज में समरसता और एकात्मता को बढ़ावा मिलता है और वह पुष्ट होती है। 1934 में वर्धा संघ शिविर में स्वयं गांधी जी को ऐसा दृश्य देखकर अत्यन्त सुखद आश्चर्य हुआ था। अपने आश्रम के निकट चल रहे लगभग 1500 गणवेषधारी स्वयंसेवकों का अत्यन्त अनुशासित शिविर का समाचार जानकर उसे प्रत्यक्ष देखने की उत्कण्ठा और उत्सुकता के साथ गांधीजी उक्त शिविर में पहुँचे। वहाँ उनका समुचित योग्य अतिथि सत्कार किया गया। गांधीजी ने शिविर की आवास, भोजनादि व्यवस्थाओं को देखा और यह जानकारी चाही कि 'इस शिविर में कितने 'हरिजन' भाग ले रहे हैं?' इस पर जब उन्हें यह बताया गया कि संघ में किसी भी स्वयंसेवक से उसकी जाति नहीं पूछी जाती तो उनका प्रतिप्रश्न था कि 'स्वयंसेवकों से पूछ कर तो आप यह जानकारी दे सकते हैं?' इस पर जब संघ के वरिष्ठ अधिकारी श्री अप्पाजी जोशी ने इस पर अपनी असमर्थता यह कहकर प्रकट की कि 'हमारे लिए इतना जानना ही पर्याप्त है कि वे सब हिन्दू हैं।' तब गांधीजी ने स्वयंसेवकों से स्वयं यह जानकारी प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। अप्पाजी द्वारा 'हाँ' कहने पर जब गांधीजी ने शिविर में भाग ले रहे स्वयंसेवकों से स्वयं जानकारी प्राप्त की तब उन्हें यह पता चला कि 'इस शिविर में तो हरिजनों सहित सभी जातियों के लोग हैं, जो अपनी जातियों के नाम के बिना पानी पीने से लेकर खेलों तक के शिविर के समस्त कार्यक्रमों में आनन्द एवं मस्ती से भाग ले रहे हैं। यह देखकर गांधीजी दंग रह गए।'
इस घटना से गांधीजी इतने प्रभावित थे कि 1946 में दिल्ली में सफाई कर्मचारियों की बस्ती में अपने निवास के दौरान एक दिन संघ के स्वयंसेवकों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने 12 वर्ष पूर्व के उस दृश्य का पुन: उल्लेख किया और कहा कि ''मैं स्वयंसेवकों में अनुशासन, अस्पृश्यता का पूर्ण अभाव तथा कठोर सादगी को देखकर अत्यधिक प्रभावित हुआ।''
विडम्बनापूर्ण उपहास
अनेक रूढ़िवादी और अंधविश्वासी व्यक्तियों के इस कुतर्क से श्री गुरुजी सहमत नहीं थे कि अस्पृश्य कहा जाने वाला अपना जन-समाज मन-मस्तिष्क संबंधी गुणों एवं क्षमताओं में आनुवांशिक रूप से अक्षम है। इसके विपरीत इस कथन को वे उक्त समाज-बन्धुओं के लिए अपमानजनक मानने के साथ ही उन्हें तथ्यों का विडम्बनापूर्ण उपहास भी कहते थे। उनका स्पष्ट कथन था कि इतिहास इस बात का साक्ष प्रस्तुत करता है कि ''विगत एक हजार वर्षों के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों में ये तथाकथित अस्पृश्य ही अग्रणी रहे हैं। महाराणा प्रताप, गुरु गोविन्दसिंह और छत्रपति शिवाजी की सेनाओं के सर्वाधिक पराक्रमी व कट्टर योध्दाओं में यही लोग रहे हैं। दिल्ली तथा बीजापुर की विद्रोही शक्तियों के विरुध्द छत्रपति शिवाजी के कुछ अति महत्वपूर्ण युध्दों में हमारे इन्हीं शूरवीर और साहसी बन्धुओं ने मानव आपूर्ति एवं नेतृत्व प्रदान किया था।''
आध्यात्मिक मार्गदर्शन
श्री गुरुजी का कहना था कि यह स्थिति केवल युध्द-क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रही है। आध्यात्मिक जगत् में भी अपने समाज के इस वर्ग ने श्रेष्ठ महापुरुष उत्पन्न किए हैं। इस वर्ग में उत्पन्न हुए साधु-संन्यासी सम्पूर्ण हिन्दू समाज की असीम श्रध्दा-भक्ति के केन्द्र रहे हैं। अपने समाज के इन बन्धुओं में अपने धर्म के प्रति इतनी अटूट एवं असीम श्रध्दा-भक्ति और विश्वास है कि धर्म के नाम पर अपने ही शेष समाज के हाथों सभी प्रकार का अपमान और उत्पीड़न सह कर भी इन समाज-बन्धुओं ने मतान्तरण करना स्वीकार नहीं किया। बाबा साहब अम्बेडकर का उदाहरण हमारे सम्मुख है जिन्हें ईसाइयत और इस्लाम में दीक्षित होने के लिए सभी प्रकार के प्रलोभन दिए गए जिन्हें उन्होंने ठोकर मार दी। उनकी बौध्दिक-शैक्षणिक प्रतिभा का लोहा तो आज भी सभी स्वीकार करते हैं।
भगवत् स्मरण
हिन्दू समाज में एकात्मता के भाव को पुष्ट बनाने हेतु श्री गुरुजी ने समाज के विभिन्न वर्गों में व्याप्त विविधाताओं को भेदमूलक स्थिति मानने और समझने की प्रवृत्ति को अनुचित बताया और साथ ही इस बात पर बल दिया कि भजन-कीर्तन अथवा रामायण एवं महाभारत की कथाओं को सुनाने आदि के कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए। हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि इन आयोजनों में समस्त हिन्दू समाज विशुध्द धर्म-प्रेम की पवित्र धारा के समान भातृ-भावना से अनुप्राणित होकर अस्पृश्य-स्पृश्य आदि का भेद भूलकर एकत्र हों तो उससे सम्पूर्ण समाज में एकात्मता की भावना बलवती होकर अलगाव और विघटन स्वत: समाप्त होता हुआ दिखाई देगा।