हमारी यह मातृभूमि ''नानारत्ना वसुन्धरा'' अर्थात् धन-धान्य से परिपूर्ण है। इससे हमारा भरण-पोषण होता है, इसलिए यह हमारी माता है। उसके आश्रय से हमने अनेक प्रकार के संकटों का धैर्य से मुकाबला किया है, इसलिए वह हमारा रक्षण करने वाली यानी पितातुल्य है। सृष्टि का स्वरूप क्या है और मनुष्य को परम तथा शाश्वत सुख कैसे प्राप्त होगा - इन जैसे बुध्दि के क्षेत्र के बाहर के अनेक प्रश्नों की खोज करते हुए मनुष्य को परम सुख देने वाला अध्यात्मशास्त्र यहां प्रकट हुआ और उसकी प्राप्ति के सभी मार्ग इस भूमि ने दिखाए। अतएव यह गुरु रूपिणी है।
यह भूमि इतनी पवित्र है कि समस्त दृश्यमान विश्व के पीछे जो सत्-तत्व ओतप्रोत है, उसकी अनुभूति यहीं होती है। जगत् में अन्यत्र ऐसी अनुभूमि कहीं भी नहीं होती। भगवत् दर्शन करने वाले लोगों की परम्परा यहाँ चली आ रही है। अति प्राचीन काल का ऋषि जगत् को सम्बोधित कर कहता है : ''वेदाहमेतद् पुरुषं महान्तम''।
अर्वाचीन युग में स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने भी नरेन्द्र के पूछने पर स्पष्ट कहा था कि ''जैसे तुम मुझे दिखाई दे रहे हो उससे भी अधिक स्पष्ट मैं भगवान को देखता हूँ।''
पवित्रता का साकार रूप
अतः यह अपने धर्म का ज्ञान कराने वाली धर्म-भूमि, सत्कर्मों को प्रेरणा देने वाली कर्म-भूमि और मनुष्य को भगवान का दर्शन कराकर उसका जीवन सार्थक कराने वाली मोक्ष-भूमि है। हिमालय से लेकर दक्षिण महासागर तक फैली हुई यह विशाल भूमि पवित्रता का साकार रूप है। इसीलिए हमारे यहाँ के सामान्यजन में भी हमारी मातृभूमि के प्रति कूट-कूटकर आदरभाव पाया जाता है।
मैं अपने ही बाल्यकाल की एक बात बताता हूँ। बचपन में एक बार आँगन में कील गाड़ रहा था, तब मेरी मां ने कहा, ''तू कैसा लड़का है। धरती माता के शरीर में कील ठोंक कर तू उसे दु:ख पहुँचा रहा है?'' अब मेरी माँ कुछ पढ़ी-लिखी नहीं थीं। हम लोगों ने उसे अक्षर-ज्ञान कराया था ताकि वह कुछ धर्म-ग्रन्थ स्वयं घर पर पढ़कर अपना समय आनन्द में बिता सके। परन्तु भूमि के संबंध में उसकी ऐसी पवित्र भावना थी।
इसलिए अपनी मातृभूमि की पवित्रता का स्मरण करते हुए मन में यह संकल्प करना है कि इसकी भक्ति में अपना जीवन-सर्वस्व लगाऊँगा तथा ऐसी स्थिति उसे प्राप्त करा दूँगा कि जगत् का कोई भी मनुष्य समुदाय मेरी मातृभूमि की ओर टेढ़ी दृष्टि से देखने का साहस नहीं करेगा।