अब प्रश्न उपस्थित होता है कि आक्रमणकारियों से यह देश पराजित क्यों हुआ? क्या आक्रमणकारी हमसे अधिक बुध्दिमान, पराक्रमी या साधन-सम्पन्न थे? ऐसा तो नहीं था। फिर हम पराभूत क्यों हुए? इतिहास में गहराई से खोजने पर पता चलता है कि बहुत दीर्घकाल तक निष्कंटक रूप से सुख-समृध्दिपूर्ण जीवन का उपभोग करते-करते हम लोग क्रमशः आलसी,ईष्यालु तथा स्वार्थी बन गये। हमारी एकता नष्ट हो गई। छोटे-छोटे राज्यों में देश को बाँटकर, आपसी कलह में मग्न हो गए। जहां आपस में संघर्ष होने लगते हैं, वह समाज टिक नहीं पाता। इसलिए अपने विद्वान् पूर्वजों ने चेतावनी दी है कि जिस प्रकार जंगल में हवा के प्रकोप से एक ही वृक्ष की शाखाएँ आपस में रगड़ कर अग्नि पैदा करती हैं और उसमें वह वृक्ष और उसके साथ सम्पूर्ण बन भस्मसात् हो जाता है, उसी प्रकार समाज भी आपसी द्वेषाग्नि, कलहाग्नि से नष्ट हो जाता है। जहाँ आपसी कलह है, वहाँ शक्ति का क्षय अवश्यंभावी है। अत: देश में दुर्बलता आई। दुर्बलों की सम्पत्ति लूटने की इच्छा सभी को होती है। अपने देश पर विदेशियों के जो आक्रमण हुए, उसका कारण यही है। आक्रमणकारी पहले-पहल यहाँ का धान लूट कर ले गए। परन्तु उनको दिखाई दिया कि एक राज्य पर आक्रमण हुआ तो पड़ोसी राज्य सहायता के लिए नहीं दौड़ता। यही नहीं, तो अपने पड़ोसी राज्य को नष्ट करने के लिए वह विदेशी सहायता भी मांगता है, तब उन्होंने सोचा कि यहाँ के छोटे-छोटे राज्यों को नष्ट कर स्वयं ही इस देश का स्वामी क्यों न बना जाय? भारत पर आक्रमणों और उससे उत्पन्न गुलामी का यही इतिहास है।