वर्धा शिबिर में महात्मा
श्रीगुरुजी (हिंदी)   27-Oct-2017
गांधी ने अनुभव किया कि सभी शिबिरार्थी एक समान धारातल पर हैं। अस्पृश्य-स्पृश्य ऐसा कोई भाव उनमें नहीं है। पुणे के संघ शिक्षा वर्ग में महामानव डॉ. बाबासाहब अंबेडकरजी को भी इसी सत्य का अनुभव आया। संघ शाखा से संस्कारित हिंदू केवल हिंदूभाव जानता है, उसे अपने जन्मजाति का विस्मरण हो जाता है। संघ में न आनेवाले, संघ के बाहर जो विशाल हिंदू समाज है उसके मन को कैसे साफ किया जाय यह समस्या है। श्री गुरुजी का चिंतन इस प्रकार है।
 
''अस्पृश्यता रोग की जड़ जनसामान्य के इस विश्वास में निहित है कि यह धर्म का अंग है और इसका उल्लंघन महापाप होगा। यह विकृत धारणा ही वह मूल कारण है, जिससे शताब्दियों से अनेक समाज-सुधारकों एवं धर्म-धुरंधारों के समर्पित प्रयासों के बाद भी यह घातक परंपरा जनसामान्य के मन में आज भी घर किए बैठी है।''
जनसामान्य के मन में घर किए बैठी इस घातक परंपरा को निकालने का काम धर्माचार्यों का है।
विश्व हिंदू परिषद का माध्यम श्री गुरुजी ने इसके लिए उपयुक्त समझकर अस्पृश्यता का कलंक मिटाने का प्रयास किया। इस संदर्भ में प्रयाग (1966) उडुपी (1969) सम्मेलन का काफी महत्त्व है। प्रयाग के सम्मेलन में परधर्म में गए हिंदुओं के घर वापसी का प्रस्ताव पारित किया गया और ''न हिन्दू: पतितो भवेत्'' की उद्धोषणा की गई। उडुपी का सम्मेलन 'अस्पृश्यता धर्म सम्मत नहीं - 'हिंदव: सोदरा: सर्वे' उद्धोषणा से विख्यात है।
 
उडुपी के ऐतिहासिक सम्मेलन के बारे में श्री गुरुजी के विचार इस प्रकार हैं- ''इस दिशा में 1969 में विश्व हिंदू परिषद के उडुपी सम्मेलन में एक सही शुरुआत की गई। इसमें शैव, वीरशैव, मधव, वैष्णव, जैन, बौध्द आदि समस्त हिंदू संप्रदायों का प्रतिनिधित्व हुआ था। सम्मेलन में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर संपूर्ण हिंदू जगत् का आह्वान किया गया कि वे श्रध्देय व धार्मगुरुओं के निर्देशानुसार अपने समस्त धार्मिक व सामाजिक अनुष्ठानों से अस्पृश्यता को निकाल बाहर करें।''
''पूज्य धर्माचार्यों का ऐतिहासिक निर्देश इस प्रकार है, समस्त हिंदू समाज को अविभाज्य एकात्मता के सूत्र में पिरोकर संगठित करने एवं स्पृश्य-अस्पृश्य की भावना व प्रवृत्ति से प्रेरित विघटन को रोकने के उद्देश्य की प्राप्ति हेतु विश्वभर के हिंदुओं को अपने पारस्परिक व्यवहार में एकात्मता एवं समानता की भावना को बराबर रखना चाहिए।'' इस प्रस्ताव का महत्त्व विशद करते हुए श्री गुरुजी का मन्तव्य इस प्रकार है, ''नि:संदेह उस प्रस्ताव की स्वीकृति हिंदू समाज के इतिहास में क्रांतिकारी महत्त्व का कदम माना जा सकता है। यह एक विकृत परंपरा पर सच्ची धर्म-भावना की विजय का स्वर्णिम क्षण था''
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड 11, पृष्ठ 337-338)
अस्पृश्यता निर्मूलन के लिए बड़ा संघर्ष डॉ. बाबासाहब अंबेडकरजी ने किया था। महाड सत्याग्रह तथा नासिक कालाराम मंदिर सत्याग्रह में उनकी धारणा यही थी कि अस्पृश्यता धर्ममान्य नहीं है और हिंदू धर्माचार्य खुलकर सामने आए और वैसा कहे भी। दुर्भाग्यवश यह हो नहीं पाया। डॉ. बाबासाहब का अधूरा कार्य श्री गुरुजी ने उडुपी में कर दिखाया।
 
उडुपी सम्मेलन का एक प्रसंग ऐतिहासिक है। इस सम्मेलन में श्री. आर. भरनैय्या सेवानिवृत्त आई.ए.एस. अधिकारी तथा कर्नाटक पब्लिक सर्विस कमिशन के सदस्य उपस्थित थे। वे खुद अस्पृश्य कहलाने वाले जाति के थे। उन्हीं की अध्यक्षता में संपन्न सत्र में ''हिंदव: सोदरा: सर्वे'' का प्रस्ताव पारित हुआ। उस पर विविध भाषण हुए। सभी प्रमुख धर्माचार्यों ने अपने मत प्रगट किए। कार्यक्रम समाप्ति के बाद मंच से उतरते ही श्री. भरनैय्याजी ने श्री गुरुजी को दृढ़ आलिंगन दिया। उनकी ऑंखों से ऑंसू निकल रहे थे। गद्गद् होकर वे बोले - ''आप हमारी सहायता के लिए दौड़ पड़े। इस उदात्त कार्य को आपने हाथ में लिया है, आप हमारे पीछे खड़े हो गए यह आपका श्रेष्ठ भाव है।''
(राष्ट्र-ऋषि श्रीगुरुजी खंड 2, पृष्ठ 64)
महात्मा गांधीजी ने अस्पृश्यों के लिए 'हरिजन' शब्द का प्रयोग किया। इस शब्द पर कड़ी आपत्ति डॉ. भीमराव अंबेडकरजी ने उठाई थी। अलग शब्द से पृथकता बढ़ेगी, मन का भाव नहीं बदलेगा ऐसा उनका कहना था। श्री गुरुजी ने भी हरिजन शब्द प्रयोग पर आपत्ति उठाई थी। ''एक बार गांधीजी से भेंट होने पर मैंने यह आशंका व्यक्त की कि 'हरिजन' शब्द चाहे जितना भी पवित्र क्यों न हो किंतु इसका नवीन प्रचलन भी अलगाववादी चेतना को जन्म देगा और सामाजिक एकता के लिए घातक राजनीतिक स्वार्थसमूहों का निर्माण करेगा। किंतु गांधीजी इससे आशंकित नहीं दिखे। दुर्भाग्यवश तब से यह खाई पटने के बजाय वर्ष-प्रतिवर्ष और चौड़ी होती जा रही है।''
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड 11, पृष्ठ 337-339)
अस्पृश्यता मिटाने के कुछ उपायों की भी चर्चा श्री गुरुजी ने की है -
प्रश्न : अस्पृश्यता की समस्या कैसे हल होगी?
श्रीगुरुजी : अस्पृश्यता की समस्या अत्यंत विकट हो गई है, किंतु वह स्वयमेव सुलझने के मार्ग पर है। वह जितना शीघ्र सुलझे, उतना ही उत्तम होगा। तथापि 'अस्पृश्यता निवारण अभियान' का ढिंढोरा पीटते हुए कदम उठाने से 'निवारण' के बजाय 'संघर्ष' ही बढ़ता है और दुराग्रह निर्माण होकर इष्ट हेतु साध्य होने के स्थान पर समस्या और भी अधिक जटिल हो जाती है। इसलिए हमारा यह प्रयास है कि अस्पृश्य माने जानेवालों का शुध्दीकरण करने से भी अत्यंत सरल कोई विधि तैयार की जाए। धर्मगुरुओं द्वारा यह विधि बनाई गई और उसे स्वीकृति दे दी गई, तो उस विधि के पीछे प्रत्यक्ष धर्म की ही शक्ति खड़ी हो जाएगी और विरोधकों का विरोध ढीला पड़ जाएगा।
 
प्रश्न : क्या आपको लगता है कि यह विधि इतनी आसान होगी?
उत्तर : इतनी सरल कि गले में माला डालकर प्रणाम और नामस्मरण कर लेना मात्र पर्याप्त होगा।
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड 9, पृष्ठ 169-170)
श्री गुरुजी द्वारा सुझाए मार्ग पर पुणे स्थित एक गणमान्य महानुभाव श्री शिरूभाऊ लिमये ने आपत्ति उठाई और प्रश्न किया -
लिमये : अस्पृश्यता समाप्त करने का सरल मार्ग आपने सुझाया है, ऐसा आप कहते हैं। पर अस्पृश्य कौन है? यह मेरी धारणा है कि अस्पृश्यों को शुध्द करने का अधिकार इन धार्माचार्यों को किसने दिया? हम इन्हें धर्माचार्य नहीं मानते।
श्री गुरुजी : कुछ बातों पर हमें विशेष ध्यान देना होगा। अस्पृश्यता केवल अस्पृश्यों का ही प्रश्न नहीं है। कौन कहाँ जन्म लेता है यह किसी के वश की बात नहीं है। मैं इसी कुल में जन्म लूँगा यह कोई नहीं कह सकता। अत: अस्पृश्यता, सवर्णों के संकुचित मनोभावना का नामकरण है। अतएव अस्पृश्यता समाप्त करना इसका तात्पर्य उस संकुचित भावना को समाप्त करना है। इसी प्रकार आप या मैं धर्माचार्यों को मानता हूँ या नहीं, इससे कोई संबंध नहीं है। जो अस्पृश्यता मानते हैं वे धर्माचार्यों को मानते हैं। अतएव धर्माचार्यों के माध्यम से इस प्रश्न को सुलझाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त विगत कई वर्षोंसे मेरे अनेक धर्माचार्यों एवं शंकराचार्यों से निकट के संबंध रहे हैं। जिससे मैं यह कह सकता हूँ कि धर्माचार्य यह कार्य अवश्य करेंगे। अर्थात् अस्पृश्यता समाप्त करने का कार्य अनेकों ने किया है। महात्मा गांधी का इसमें गुरुतर सहयोग है। अस्पृश्यता निवारण में जो पचासों प्रयोग हो रहे हैं, उसमें मेरा भी एक योगदान है। दूसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि अपना देश इंग्लैंड या अमरीका जैसा संवैधानिक विचारधारावाला (constitution-minded) नहीं है। अपितु वह धर्मानुरूप व्यवहार करनेवाला है। हम प्राय: देखते हैं कि अनेक स्थानों पर घरों में भूमिपूजन, वास्तुशांति अथवा गृहप्रवेशादि अवसरों पर धार्मिक कार्य किए जाते हैं। इस प्रकार धार्मिक कार्यों द्वारा सारे संकटों का, अनिष्टों का परिमार्जन होता है, ऐसी धारणा रूढ़ है। विवाहादि में भी यही देखा जाता है। स्त्री-पुरुष एकत्र आने पर उनके संसार नहीं चलेंगे अथवा संतान नहीं होगी ऐसी कोई बात नहीं है। परंतु समाज इसे स्वीकार नहीं करता। किंतु यदि समाज को ज्ञात हो जाए कि उनका विवाह हुआ है, उन पर धार्मिक संस्कार हुए हैं, तब समाज उन्हें सहज स्वीकार कर लेता है। अपने राज्य में भी यहाँ के समाजवादी मुख्यमंत्री ने कोयना बाँध निर्माण कार्य के पूर्व नाव से कोयना नदी की मुख्य जलधारा में खड़े होकर उसकी सौभाग्य द्रव्यों से विधिवत् अर्चना की। इसका क्या अर्थ निकाला जाए? जब किसी महत्वपूर्ण कार्य को सामाजिक मान्यता मिल जाती है तब वह शंकातीत हो जाता है तथा यह धार्मिक मान्यता सर्वसामान्य समाज को संतुष्ट करती है। दूसरा यह कि मैंने सुझाए गए उपाय में यह कहा है कि तथाकथित अस्पृश्य बंधुओं ने रामनाम का उच्चारण करना चाहिए एवं हिंदू धर्माचार्यों ने उन्हें माला पहनानी चाहिए। यद्यपि राज्य संविधान के अनुसार अस्पृश्यता समाप्त हो गई है, ऐसा हम मान भी लें, तब भी अनेकों के मन में आशंका या ऐंठ बनी रहे, तब धर्माचार्यों की इस कृति से इन अस्पृश्यों के पीछे धर्म की मान्यता ढाल बन कर खड़ी है, यह धारणा बनती है। यदि इक्का-दुक्का इस आशंका या ऐंठ से ग्रसित हो तब चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड 9, पृष्ठ 179-181)
श्री गुरुजी के जीवनदर्शन का सबसे बड़ा वैशिष्टय यह था कि वे जैसा बोलते थे वैसा ही व्यवहार किया करते थे। तत्त्वचर्चा में जातिभेद - अस्पृश्यता का खंडन और व्यवहार में उसका आचरण ऐसी बात उनके जीवन में नहीं थी। दो उदाहरण यहाँ पर्याप्त होंगे। बिहार की एक उपेक्षित बस्ती में श्री गुरुजी गए थे। बस्ती के लोगों ने उनका स्वागत किया, गपशप हुई, चायपान हुआ और वे गाड़ी से आगे निकल पड़े। थोड़े ही समय के बाद गाड़ी के (ड्रायवर को) चालक को मिचली-सी आ गई और उल्टी हुई, थोड़ी देर बाद एक-एक कर के अन्य चार लोगों को भी उल्टी हो गई। सारे लोग श्री गुरुजी को उल्टी होने की राह देखने लगे और चायपान के संबंध में बातें करते रहे। श्री गुरुजी पर इस बात का कोई असर न हुआ और उन्हें उल्टी भी न हुई। उनके सहकारियों ने उनकी पचनशक्ति के बारे में पूछा, तब श्रीगुरुजी ने कहा, आप लोगों का ध्यान बस्ती की अस्वच्छता, गंदगी पर रहा, उस की जगह उन लोगों के आतिथ्य, अकृत्रिम स्नेह की तरफ आप लोग ध्यान देते तो आपको चाय हजम हो जाती। आपने वहाँ की गंदगी पी डाली और मैंने वहाँ का प्यार, स्नेह। उसी अमृत पर तो मैं जी रहा हूँ। उसी से मेरा पोषण होता है, तो ऐसे स्नेह से मिचली कैसे हो?
(तेजाची आरती, ले. ह. वि. दात्ये, पृ. 169-170)
1950 के पुणे के संघ-शिक्षा-वर्ग का प्रसंग है। 1300 के आस-पास स्वयंसेवक थे। भोजन के समय जलेबी भी बनाई गई थी। उसके वितरण के लिए अधिकारीवर्ग की देखरेख में योजना बनी। श्री मोरोपंत पिंगले, श्री सीतारामपंत अभ्यंकर आदि अन्य अधिकारी निरीक्षण कर रहे थे। श्री गुरुजी उनके पीछे-पीछे थे। कई स्वयंसेवकों का नाम लेकर आग्रहपूर्वक उन्हें खिला रहे थे। दूसरी पंक्ति में अधिकारी वर्ग भोजन के लिए बैठा। आठ- नौ स्वयंसेवकों को वितरण के लिए कहा गया। एक स्वयंसेवक वितरण न करके, वैसे ही बैठा रहा। श्री गुरुजी का ध्यान उसकी तरफ गया। भोजन शुरू होने के पूर्व ही वे उसके पास गए और कहा - तू कैसे बैठा है? वितरण कर। उस स्वयंसेवक को बहुत संकोच हो रहा था। वह नारायण 'चर्मकार' था, इसलिए संकोच कर रहा था। जब उसने श्री गुरुजी को बताया तो श्री गुरुजी को बहुत खराब लगा। श्रीगुरुजी ने उसका हाथ पकड़ करके जलेबी की थाली उसके हाथ में दी। सर्वप्रथम अपनी थाली में परोसने को श्री गुरुजी ने कहा, फिर सब स्वयंसेवकों को देने के लिए कहा। यह प्रसंग है छोटा परंतु जीवन भर याद रहेगा, एक अत्यंत कठिन समस्या का अत्यंत सरल उत्तर अपने आचरण से देने वाला।
(श्रीगुरुजी जीवन-प्रसंग: भाग 2, पृष्ठ 160-161)
अस्पृश्य बंधुओं ने खुद को अस्पृश्य या हीन-दीन नहीं समझना चाहिए, ऐसी श्री गुरुजी की धारणा थी। एक स्वयंसेवक ने श्री गुरुजी से प्रश्न किया ''मैं पिछड़ी जाति का हूँ। संघ में केवल सवर्ण ही नजर आते हैं। पिछड़ी एवं अनुसूचित जाति के लोगों का यथोचित प्रतिनिधित्व नहीं दिखाई देता है। इस प्रकार विषमता का व्यवहार क्यों रखा गया है? श्री गुरुजी का उत्तर इस प्रकार था -
श्री गुरुजी - किसी जाति के या पिछड़ी - सवर्ण जैसी पृथकता मैंने तो संघ में कभी भी अनुभव नहीं की है। पिछड़ी जाति के या अनुसूचित जाति के लोग अपने को पिछड़े या अनुसूचित क्यों समझ बैठे हैं, किसी की समझ में आना कठिन है। अपनी जाति या गुट का ही विचार उनके दिमाग पर सवार रहना ठीक नहीं है। दिल और दिमाग पर हावी हुआ यह विचार इसलिए अब तक चलता आ रहा है, क्योंकि कुछ लोग इससे फायदा उठाना चाहते हैं और इस प्रवृत्ति को राजनीति खेलनेवाले नेता प्रोत्साहित करते रहते हैं। ऐसे विकृत विचारों से संघ दूर है। जाति, भाषा या अन्य तथाकथित भेदों का विचार छोड़कर हम अपने हिंदू समाज को संगठित करना चाहते हैं। प्रत्येक स्थान पर संघ का काम बंधुवत आपसी स्नेहभाव को वृध्दिंगत करने पर ही आधारित है। किसी एक या दूसरे जाति विशेष के लिए नहीं, अपितु संपूर्ण समाजजीवन सुसंगठित करने का हम प्रयत्न करते हैं। अस्पृश्यता निवारण (निर्मूलन) के लिए समाज में संघर्ष करना चाहिए, आंदोलन करना चाहिए, कोई ठोस प्रोग्राम देना चाहिए ऐसी धारणा अनेक लोगों की है। संघर्ष या आंदोलन से अस्पृश्यता समाप्त होगी इस पर श्री गुरुजी का विश्वास नहीं था। आंदोलन तथा संघर्ष से केवल पृथकता ही बढ़ेगी, एकात्मता, समरसता निर्माण नहीं होगी, ऐसा उनका पक्का विश्वास था। इस संदर्भ में श्री गुरुजी की सोच इस प्रकार की थी।
(1972 में ठाणे में अखिल भारतीय वर्ग हुआ। इस वर्ग में हुए प्रश्नोत्तार में से एक प्रश्नोत्तर)
प्रश्न - संघ में अस्पृश्यता नहीं मानते, परंतु समाज में उसका निवारण करने के लिए और भी कोई प्रोग्राम लेने का हम सोच सकते हैं क्या?
उत्तर - उसका कोई प्रोग्राम लेने से काम बनेगा क्या? महात्माजी ने अस्पृश्यता निवारण को कांग्रेस के कार्यक्रम में सम्मिलित करवाया और उसके लिए बड़े प्रयत्न किए। उसका परिणाम है कि हरिजन दूर गए। अलग नाम देने से पृथक्ता की भावना बढ़ी। गांधीजी ने तो यह नाम इसलिए दिया था कि पुराने नामों के साथ जो सहचारी भाव है, उसके कारण जो भाव मन में उत्पन्न होते हैं, वे 'हरिजन' नाम के साथ उत्पन्न नहीं होंगे। उन्होंने सोचा तो ठीक था, परंतु वह भाव दूर नहीं हुआ।
एक हरिजन नेता से डॉक्टर हेडगेवारजी का और मेरा, हम दोनों का संबंध था। वे कहते थे संघकार्य बहुत अच्छा है परंतु संघ हमारा सच्चा शत्रु है। क्योंकि बाकी सब हमारा पृथक् अस्तित्व स्वीकार करते हैं। हमारे पृथक् अधिकार की बातें करते हैं, परंतु संघ में जाकर हमारी पृथक्ता समाप्त हो जाएगी और हम केवल हिंदू रह जाएँगे। फिर विशेषाधिकार कैसे मिलेंगे? पृथक्ता का भाव उनमें कटुता तक पहुँच गया था। इसी कटुता और पृथक्ता के भाव के कारण उनके मनमें यह विचार आया कि यदि हिंदू समाज में डूब गए तो हमारा क्या होगा? 1941 में एक महार लड़का मुझसे मिलने आया। उसने पूछा कि संघ में आने से हमें क्या लाभ होगा? मैंने कहा कि तुम अपने को पृथक मानते हो और दूसरे तुमको पृथक मानते हैं, यह पृथकता की दीवार ढह जाएगी। यह लाभ है या नहीं? पृथकता का पोषण न करते हुए उनकी व्यथाएँ दूर होगी ऐसा यदि कुछ सोच सकते हैं, तो सोचना होगा। अन्यथा समस्याएँ खड़ी होंगी। छुआछूत का भाव बहुत गहरा पहुँचा हुआ है। ब्राह्मणों में भी छोटी बड़ी जातियाँ हैं। जिसमें एक दूसरे के हाथ का पानी नहीं पीते थे। अब तो सब ठीक हो गया है, परंतु पहले यह छुआछूत भावना होती थी। हरिजनों में भी एक दूसरे की छाया तक सहन न करनेवाले लोग हैं। ''प्रॉब्लेम इज कोलोसल''। अस्पृश्यता, केवल ब्राह्मण आदि ही पालन करते हैं, इतना कहना पर्याप्त नहीं है। इसमें बहुत परिश्रम करना पड़ेगा बहुत शिक्षा देनी होगी। पुराने संस्कार धोने होंगे, नए देने होंगे। बहुत वर्षों से अंदर घुसी हुई ऐसी ये विचित्र भावनाएँ हैं, जिन्हें बल से दूर करने से काम नहीं चलेगा। इससे पृथकता बढ़ेगी। इस संबंध में बहुत सोचना पड़ेगा। जिन्हें अस्पृश्य कहा गया उनके बारे में तनिक-सा भी हीन भाव श्री गुरुजी के व्यवहार में नहीं था। अपने बंधुओं के बारे में अत्यंत गौरवपूर्ण शब्दों में वे कहते हैं-यह कहना कि ये तथाकथित अस्पृश्य जातियाँ मन-मस्तिष्क संबंधी गुणों में आनुवांशिक रूप से ही अक्षम हैं और वे आनेवाले दीर्घ काल तक शेष समाज के स्तर तक नहीं पहुँच सकती, उनका अपमान ही नहीं, बल्कि तथ्यों का विडंबनापूर्ण उपहास भी है। इतिहास साक्षी है कि गत एक हजार वर्षों के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों में ये तथाकथित अस्पृश्य ही अग्रणी रहे हैं। महाराणा प्रताप, गुरुगोविंदसिंह और छत्रपति शिवाजी की सेनाओं के सर्वाधिक पराक्रमी व कट्टर योध्दाओं में यही लोग रहे हैं। दिल्ली तथा बीजापूर की विद्रोही शक्तियों के विरुध्द छत्रपति शिवाजी के कुछ अति महत्तवपूर्ण युध्दों में हमारे इन्हीं शूरवीर और साहसी बंधुओं ने मानव आपूर्ति एवं नेतृत्व प्रदान किया था।
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड 11, पृष्ठ 341)
अपने आध्यात्मिक जगत् में अपने इन बंधुओं का योगदान भी अतीव श्रेष्ठ है। उत्तर में रैदास, महाराष्ट्र में चोखामेला, इतना ही नहीं तो रामायण और महाभारत के रचयिता भी उच्च जाति के नहीं थे। ऐसे श्रेष्ठ महापुरुष निर्माण करने वाली इन जातियों की अवहेलना करना पाप है। श्री गुरुजी का मन्तव्य ऐसा है - ''इन जातियों में ऐसे असंख्य साधु संन्यासियों ने जन्म लिया है, जिन्होंने हमारे समाज के सभी वर्गों की असीम श्रध्दा-भक्ति प्राप्त की है। इन भाइयों में हमारे धर्म के प्रति अटूट श्रध्दा तथा विश्वास, संपूर्ण समाज-हेतु सदैव प्रेरणादायक रहा है। धर्म के नाम पर शेष समाज के हाथों सभी प्रकार का अपमान तथा उत्पीड़न सहकर भी इन बंधुओं ने धर्म-परिवर्तन के प्रलोभनों का दृढ़ता से प्रतिकार किया है। देश-विभाजन के दौर में बंगाल के लाखों नामशूद्रों-अछूतों - ने इस्लाम ग्रहण कर अपने प्राण बचाने के स्थान पर अवर्णनीय कष्ट सहन करना अधिक पसंद किया। बाद में इन्हें भारत के सीमा-क्षेत्रों में ही हिंदू के रूप में अप्रवासी (निर्वासित) बनना पड़ा।''
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड 11, पृष्ठ 341)
आज समाज में चातुरर्वण्य, जातिव्यवस्था, अस्पृश्यता का जो चित्र दिखता है वह सामाजिक समरसता के लिए अत्यंत बाधक है। श्री गुरुजी इस सामाजिक रोग का जड़ से निर्मूलन चाहते थे। इस संदर्भ में उनकी सोच ऊपर-ऊपर की नहीं थी। 'ऑपरेशन सक्सेसफुल, पेशंट इज डेड' जैसी उपाय-योजना वे नहीं चाहते थे। इसलिए चातुरर्वण्य क्या है, जातिव्यवस्था क्या थी इसकी वे शास्त्रीय चिकित्सा करते हैं। आज उसकी कोई उपयुक्तता नहीं रही यह भी बताते हैं । आज सर्व प्राथमिक आवश्यकता समाज में एकात्म भाव जगाने की है। इसी भाव- जागरण से समाज में समरसता निर्माण होगी ऐसा उनका विश्वास था। श्रीगुरुजी का मार्ग अन्य सभी मार्गों से अलग था। जो लोग सामाजिक संघर्ष के रास्ते पर चल रहे थे, या जो लोग हरिजन उध्दार के रास्ते पर चल रहे थे उन्होंने या तो श्री गुरुजी को समझा नहीं या जानबूझकर उनके बारे में गलत-फहमियाँ निर्माण की। इससे श्री गुरुजी नामक व्यक्ति का कोई नुकसान नहीं हुआ लेकिन सामाजिक समस्याएँ और विकराल बनती चली जा रही हैं। इतिहास जब निरपेक्ष भाव से जाति निर्मूलन अभियान का लेखा-जोखा लेगा तब उसे यह मान्य करना पड़ेगा कि श्री गुरुजी की भूमिका समाज के सार्वत्रिक और सार्वकालिक कल्याण की थी।