युग की परिभाषा में कहना होगा तो आज हम कलियुग से गुजर रहे हैं । ईष्या, स्पर्धा, द्वेष, अविश्वास, भोगलालसा आदि इस युग की विशेषताएँ हैं। सब प्रकार की असमानता, शोषण, अन्याय इस युग की पहचान हैं। ''आर्थिक, राजनीतिक, वैचारिक आदि सभी आधारों पर लोग संघर्ष के लिए तैयारी कर रहे हैं। आत्मौपम्य बुध्दि कम हो गई है। धर्म की कमी के कारण उत्पन्न आज का दु:ख, दैन्य और अशांति से परिपूर्ण जीवन ही रह जाता है।''
(श्री गुरुजी समग्र : खंड 2, पृष्ठ 95)
आदर्श समाज की रचना केवल रट लगाने से नहीं होगी। उस लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर कष्ट उठाने पडेंगे। श्री गुरुजी का बताया हुआ मार्ग इस प्रकार है -
संपूर्ण समाज की एकात्मता का अनुभव।
पूर्ण राष्ट्र की सेवा।
अपना सुख-दु:ख भूलकर भी अपने बंधुओं के लिए सर्वस्वार्पण करते जाना।
इसी से संपूर्ण मानव समाज के साथ समान सुख-दु:ख की भूमिका उत्पन्न होगी।
यह सारा कार्य धर्मभाव जागरण से ही संभव होगा इस महान ध्येय को श्री गुरुजी ने अपने 33 वर्ष के जीवनकाल में बार-बार दुहराया है।
आत्मौपम्य दृष्टि से सभी को समान देखते हुए, निरपेक्ष प्रेम भाव से समाज के सभी अंगों, प्रत्यंगों के साथ एकात्मभाव जगाने का प्रयास उन्होंने निरंतर किया। उनके लिए 'समरसता' यह दिखावे का शब्द नहीं था, जीवन व्यवहार का दर्शन था।