हम सभी जानते हैं कि आज का हिंदू समाज चार वर्ण और हजारों जातियों में बँटा हुआ समाज है। हिंदू समाज के अंदर किसी व्यक्ति की पहचान 'हिंदू' इस शब्द से कम और जन्म जाति से अधिक होती है। आज की जातिप्रथा और वर्णप्रथा जन्मत: है। विषमता उसकी जड़ है। श्रेणीबध्दता उसकी विशेषता है। एक जाति से दूसरी जाति में जाना प्राय: असंभव है। श्रेणीबध्द रचना होने के कारण धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक अधिकारों का बँटवारा विषमता से किया गया है। कई जातियाँ जन्मत: अपवित्र मानी गई हैं, उनको अछूत माना गया है। ब्राह्मण जातियाँ जन्म से ही पवित्र मानी गई हैं। वर्ण-जाति, अस्पृश्यता ये सब हिंदू धर्म के ही अंग हैं, ऐसा माना गया। धार्मिक अधिष्ठान प्राप्त होने के कारण, वर्ण, जाति, अस्पृश्यता अपरिवर्तनीय मानी गई। सैकड़ों साल समाज का बड़ा हिस्सा अज्ञान और दरिद्रता में रहा। इसी कारण सब प्रकार का पिछड़ापन समाज के कई वर्गों - जातियों में पाया जाता है। समरस समाज निर्मिति में या समाज की साम्यावस्था की स्थिति लाने में आज विद्यमान जातिभेद, वर्णभेद का रोग एक बड़ा रोड़ा बनकर खड़ा है। क्या था श्री गुरुजी का दृष्टिकोण वर्ण, जाति, अस्पृश्यता के संदर्भ में?