1. हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि ग्रामों में रहनेवाला वह सामान्यजन ही है, जो हमारे राष्ट्र का वास्तविक आधार है। भूतकाल में भी जब कभी हमारे समाज पर विदेशी आक्रमणों की विभीषिका आई, तब यह 'असभ्य ग्रामीण', 'निरक्षर' कहलानेवाला जनसमुदाय ही था, जो अनेक कष्टों और बलिदानों को सहन करते हुए स्वदेश एवं स्वधर्म के उध्दार हेतु उठ खड़ा हुआ।
2. हमारा कर्तव्य है कि अपने इन परित्यक्त भाइयों को, जो शताब्दियों से धार्मिक दास्य के क्लेश को भोग रहे हैं, पुन: अपने पूर्वजों के घर बुला लायें। ईमानदार, स्वतंत्रताप्रिय मनुष्यों की भाँति वे भी दास्य तथा आधिपत्य के सभी चिह्वों को उतार फेंके और वंशपरम्परानुगत भक्ति एवं राष्ट्रीय जीवन की रीतियों का अनुसरण करें। सभी प्रकार की दासता हमारी प्रकृति के प्रतिकूल है, अत: उसे त्याग देना चाहिये। यह उन सभी भाइयों के लिये आह्वान है कि वे हमारे राष्ट्र-जीवन में अपना मूल स्थान ग्रहण करें और हमारे समाज के इन लौटे हुए, भटके हुए पुत्रों के पुन: आगमन पर हम महान दीपावली का पर्व मनायें।
3. इस व्यावहारिक जगत् में हमें एक समाज के रूप में खड़ा होना चाहिये। पवित्रता, आत्मज्ञान, वेदांत के तत्त्व का संपूर्ण विश्व में प्रसार करना तथा विश्व को अंतिम सत्य की अनुभूति के उद्देश्य से प्रशिक्षित करना अपना जीवनोद्देश्य है। इस ज्ञान के अधिष्ठान पर हमें अपना जीवन बनाना होगा। अपने जीवनोद्देश्य के अनुरूप हमें अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखनी होगी। यदि हम ऐसा नहीं करते हैं, तो हमारे अस्तित्व का कोई उपयोग नहीं है। जब तक हम समाज के रूप में शक्तिशाली, अनुशासित और संगठित नहीं होते, इस विश्व में हम सम्मान प्राप्त नहीं कर सकेंगे।
4. हमारे समाज के जो लोग हमसे अलग हुए, उसके दो कारण हैं। एक आक्रमणकारियों ने उन्हें घसीटा, और अपने घसीटे जाने पर रंज न मानते हुए उन्होंने उनके साथ मिलने में धन्यता मानी। उन्होंने आक्रमणकारियों के नाम कुल आदि स्वीकार कर उनके साथ नाता जोड़ लिया। दूसरा कारण लोगों को अपना बनाये रखने की हमारी पात्रता नहीं रही। अनेकों हमारे यहाँ से
चले गये और हमने कुछ नहीं किया। आक्रमण के इस स्वरूप का चित्र देखकर दु:ख होता है या नहीं? हृदय में चोट लगती है या नहीं? यदि संवेदना है तो इसकी व्यथा अवश्य होनी चाहिए। उसके निराकरण के लिये खड़ा होना होगा। भूमि तथा समाज का यह भयंकर ह्रास समाज कार्य के लिये चेतना उत्पन्न करने की पर्याप्त प्रेरणा नहीं दे सकता है, तो कोई अन्य बात प्रेरणा नहीं देगी।
5. परकीय आक्रमणों के सहायक कारणों में से प्रथम कारण है राष्ट्रजीवन की धारणा की शिथिलता। स्वार्थ के कारण हमने परस्पर संघर्ष ही नहीं किये, बल्कि सहायता के लिये परकीयों को बुलाने में भी संकोच नहीं किया। यह नहीं सोचा कि इस प्रकार हम अपनी मातृभूमि पर संकट ला रहे हैं। राष्ट्रभक्तिहीन, परस्पर संघर्षमय, असंगठित, छिन्न-विच्छिन्न समाजजीवन इसका कारण है। यदि इस कारण को हमने दूर नहीं किया, तो प्राप्त स्वतंत्रता कैसे टिकेगी?
6. ऐसा नहीं है कि हमारे समाज ने केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में ही ख्याति प्राप्त की थी और दैनिक व्यावहारिक जीवन के अन्य क्षेत्रों की ओर दुर्लक्ष किया था। प्रामाणिक प्राचीन आलेखों ने नि:संदिग्धा रूप से यह प्रकट कर दिया है कि विज्ञान और कला की प्रत्येक शाखा में हम बाकी दुनिया से कई शताब्दियाँ आगे थे।
7. हम एक ही समाज की संतान हैं और हमें अपने सुख-दु:ख परस्पर बाँटने हैं। एकात्मता के भाव का अभाव ही हमारी दुर्गति का मूल कारण है। समाज के प्रति हमारा प्रेम और समर्पण ठोस रूप में प्रकट होना चाहिये। हमारे समाज में अनेक लोगों को दैनिक भोजन के बिना रहना पड़ता है, क्या हम उनके प्रति संवेदनशील हैं? क्या हमारे मन में उनके लिये कुछ करने की इच्छा जागृत होती है? प्राचीन काल में हमारे यहाँ 'बलिवैश्वदेव यज्ञ' होता था, जहाँ सर्वप्रथम निर्धन व भूखों को भोजन कराया जाता था, शेष सब बाद में खाते थे। आज भी हम समाज के भूखे लोगों के लिये मुट्ठीभर अन्न निकालकर अपना भोजन कर सकते हैं और करना भी चाहिये। यही वास्तविक 'बलि-वैश्वदेव यज्ञ' होगा।
8. कोई भी राष्ट्र उन्नत नहीं हो सकता, जिसका औसत व्यक्ति बौना हो और जिनके बीच कुछ ही विशालकाय असामान्य व्यक्तित्व खड़े हों। विदेश इतिहासकार तथा उस समय के यात्रियों के भी तुलनात्मक अध्ययन हमें बताते हैं कि इस देश का जनसाधारण अन्य देशों के सामान्यजन से, एक समय में, अतुल्य श्रेष्ठ था। इसका स्पष्ट कारण था कि हमारे समाज के नेताओं ने समाज के प्रत्येक स्तर में हमारे सांस्कृतिक संस्कारों को निर्विष्ट करने के लिये लगातार अथक प्रयत्न किये थे। इसीलिये हमारे समाज के प्रत्येक वर्ग से सन्त-महात्मा तथा शूरवीर मिलते हैं,
जिनके विचारों एवं 'कृतियों', गीतों एवं कथनों ने सम्पूर्ण ऊपरी व्यवधानों को पार करते हुए हमारे लोगों को प्रेरणा दी है।
9. संपूर्ण राष्ट्र की सुस्पष्ट कल्पना आँखो के सामने न होने से समाज इतना छिन्नविच्छिन्न हुआ तथा स्वार्थ-भावना इतनी प्रबल हुई कि व्यक्ति और उसके परिवार के परे व्यापक दृष्टि से और आत्मीयता से विचार करने की प्रवृत्ति और योग्यता नष्ट हुई। इसलिए अपने पवित्र स्थलों और अपने बंधुओं पर प्रहार करने के लिये अपने में से ही लोग प्रवृत्त हो सके।