उपरिनिर्दिष्ट विवेचन से यह स्पष्ट होगा कि जो लोग या जो समाज, अपने देश को मातृभूमि मानकर उसका वन्दन करता है, जिसकी इतिहास की अनुभूतियाँ समान हैं, तथा जिसके सांस्कृतिक जीवनमूल्य समान हैं, उस समाज का राष्ट्र बनता है। अपने देश के सन्दर्भ में विचार किया तो यह स्पष्ट रूप से प्रतीत होगा कि, ऐसे समाज का नाम हिन्दू है। अत: यह हिन्दू राष्ट्र है। एक राष्ट्र बनने के लिए समान भाषा की आवश्यकता नहीं है। अमरीका और कनाडा की भाषा एक है, किन्तु वे अलग राष्ट्र हैं, कारण उनकी इतिहास की अनुभूतियाँ भिन्न हैं। स्विटजरलैंड में तीन भाषाएँ प्रचलित हैं, फिर भी वह एक राष्ट्र है। भले ही भाषा भिन्न हो, पर आशय एक होना चाहिए। मजहब या उपासना पध्दति भी एकरूप होने की आवश्यकता नहीं। हिन्दू मन और संस्कार, विविधता के नित्य पोषक रहे हैं। समान आर्थिक हितसम्बन्धों के कारण आर्थिक गठबन्धान बन सकता है। राष्ट्र नहीं बनता अर्नेस्ट रेनॉ भी यही मत प्रतिपादित करते हैं।
“Community of interests brings about commercial treaties. Nationality which is body and soul both together has its sentimental side: and a Customs Union is not a country.” ( ibid - page 764 )
और आज के यूरोप का वास्तव, उसी मत की पुष्टि करता है। इंग्लैंड को छोड़कर यूरोप के कई देशों ने एक समान सिक्का भी स्वीकृत किया है, किन्तु उसके कारण यूरोपियन यूनियन में अन्तर्भूत राष्ट्रों ने अपनी स्वतंत्र अस्मिता और अलग पहचान को समाप्त नहीं किया। उस विशिष्ट पहचान को खतरे का आभास दिखते ही फ्रान्स का राष्ट्रभाव जागृत हुआ और उसने अधिक नजदीकी का विरोध किया।
हिन्दू समाज में अनेक विविधताएँ हैं। अनेक भाषाएँ हैं। जातियाँ हैं। प्रान्त के भेद भी हैं। फिर भी सबके अंतरंग में सांस्कृतिक एकात्मता का भाव है। भिन्न-भिन्न भाषाओं ने उसी सांस्कृतिक एकात्मता को अधोरेखित किया है। इस एकात्मता का नाम हिन्दू है। देश का नाम भी हिंदुस्थान है। श्री गुरुजी का आग्रह है कि हमने अपना सदियों से चलता आया हुआ ''हिन्दू'' यह नाम नहीं छोड़ना चाहिये। हिन्दू इस नाम में कोई बुराई नहीं है। श्री गुरुजी के शब्द है:-
''अनादि काल से, एक महान् एवं सुसंस्कृत समाज, जिसे हिन्दू कहते हैं, इस भूमि के पुत्र के रूप में निवास कर रहा है। किन्तु कुछ लोग हिन्दू नाम पर आपत्ति करते हैं और कहते हैं कि तुलनात्मक दृष्टि से इसका मूल तो साम्प्रदायिक है तथा यह नाम हमें विदेशियों द्वारा दिया गया है। वे हिन्दू के स्थानपर 'आर्य' अथवा 'भारतीय' नाम का सुझाव देते हैं।''
इसपर श्री गुरुजी कहते हैं ''निस्संदेह 'आर्य' एक स्वाभिमानपूर्ण प्राचीन नाम है। किन्तु इसका प्रयोग, विशेषतया गत सहस्र वर्षों में अप्रचलित हो गया। गत शताब्दी में ऐतिहासिक शोध के नाम पर अंग्रेजों द्वारा किए हुए अपप्रचार ने हमारे मस्तिष्क में धूर्ततापूर्वक बनाए गए आर्य -द्रविड़ विवाद की विषैली जड़ें गहराई तक फैला दी हैं। अत: 'आर्य' नाम का प्रयोग हमारे उद्देश्य की सिध्दि में निष्फलता का कारण बनेगा।''
''भारतीय'' नाम के बारे में श्री गुरुजी कहते हैं :- भारतीय प्राचीन नाम है, जो अतिप्राचीन काल से हमसे संबंधित है। भारत नाम वेदों तक में मिलता है। हमारे पुराणों ने भी हमारी मातृभूमि को 'भारत' कहा है और यहाँ के निवासियों को ''भारती''। वास्तव में ''भारती'' सम्बोधन हिंदू का पर्यायवाची है। किन्तु आज भारतीय शब्द के सम्बन्ध में भ्रान्त धारणाएँ उत्पन्न हो गई हैं। सामान्यतया यह 'इंडियन' शब्द के अनुवाद के रूप में प्रयुक्त होने लगा है। भारत का अर्थ हिन्दू ही है। ''भारत'' को कितना ही तोड़-मरोड़ कर कहा जाय तो भी उसमें से अन्य कोई अर्थ नहीं निकल सकता। अर्थ केवल एक ही निकलेगा 'हिन्दू'। तब क्यों न ''हिन्दू'' शब्द का ही असंदिग्ध प्रयोग करें। हमारे राष्ट्र की पहचान करानेवाला सीधा-सादा प्रचलित शब्द ''हिन्दू'' है। केवल हिन्दू शब्द ही उस भाव को पूर्ण एवं शुध्द रीति से व्यक्त करता है, जिसे हम व्यक्त करना चाहते हैं।
''यह कहना भी ऐतिहासिक दृष्टि से शुध्द नहीं है कि 'हिन्दू नाम नूतन है अथवा विदेशियों द्वारा हमें दिया गया है। विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ 'ऋग्वेद' में हमें ''सप्त सिन्धु'' नाम मिलता है, जो हमारे देश एवं हमारे जन के लिए प्रयुक्त हुआ है। यह भी भली प्रकार से ज्ञात है कि संस्कृत का 'स' वर्ण हमारी कुछ प्राकृत भाषाओं में तथा कुछ यूरोपीय भाषाओं में भी 'ह' में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार प्रथम 'हप्त हिन्दू', तत्पश्चात् ''हिन्द'' नाम प्रचलित हो गया। इसलिए ''हिन्दू'' हमारा अपना और गौरवशाली नाम है, जिसके द्वारा बाद में अन्य लोग भी हमें पुकारने लगे।''
यहाँ यह बात ध्यान में रखने लायक है कि कारण कुछ भी हों, पश्चिम और पूर्व के प्रदेशों में 'स' के बदले 'ह' का उच्चारण किया जाता है। 'सप्ताह' 'हप्ता' बनता है। 'सम' 'हम' हो जाता है और फिर समता के निदर्शक 'हमदर्द', 'हमसफर' ऐसे शब्द बनते हैं। पारसियों के धर्म ग्रन्थ में 'सुर' का 'हुर'। और 'असुर' का 'अहुर' बना है। पूर्व में भी, जिसको हम 'असम' बोलते हैं, उसको वहाँ के लोग 'अहोम' बोलते हैं। इसी रीति से वहाँ 'संघ' 'हंग' हो जाता है। अत: सिन्धु का हिन्दू बनना एकदम स्वाभाविक है। 'सिन्धु' जितनी प्राचीन, उतना ही हिन्दू प्राचीन।
कुछ लोग, विशेषत: बाहरी लोग, हिन्दू समाज के अंतर्गत अनेक विश्वासों, सम्प्रदायों, जातियों, भाषाओं, रीति-रिवाजों के बाहुल्य को देखते हैं तो वे भ्रम में पड़ जाते हैं और प्रश्न करते हैं कि भाँति-भाँति के तत्तवों एवं असंगत स्वरों से युक्त समूह को किस प्रकार एक समाज कहा जा सकता है? कहाँ है एक जीवनपध्दति जिसे तुम 'हिन्दू' कहते हो?, इस प्रश्न के उत्तर में श्री गुरुजी का कथन है- ''यह प्रश्न हिन्दू-जीवन के बाह्य स्वरूप से उत्पन्न होता है। उदाहरणार्थ एक वृक्ष को लीजिए, जिसमें शाखाएं, पत्तियाँ, फूल और फल के समान भिन्न-भिन्न प्रकार के उसके कई भाग होते हैं। तने में शाखाओं से अन्तर होता है और शाखाओं में पत्तियों से। सभी एक दूसरे से नितान्त विभिन्न। किन्तु हम जानते हैं कि ये सब दीखनेवाली विविधाताएँ केवल उस वृक्ष की भाँति-भाँति की अभिव्यक्तियाँ हैं, जबकि उसके इन सभी अंगों को पोषित करता हुआ उनमें एक ही रस प्रवाहित हो रहा है। यही बात हमारे सामाजिक जीवन की विविधाताओं के सम्बन्ध में भी है, जो इन सहस्रों वर्षों में विकसित हुई है। जिस प्रकार वृक्ष में फूल और पत्तियों का विकसन उसका विभेद नहीं, उसी प्रकार हिन्दू समाज की विविधाताएँ भी आपसी विघटन नहीं है। इस प्रकार का नैसर्गिक विकास हमारे समाज जीवन का अद्वितीय स्वरूप है।''
श्री गुरुजी आगे बताते हैं, ''अनेकता में एकता' का हमारा वैशिष्टय हमारे सामाजिक जीवन के भौतिक एवं आधयात्मिक सभी क्षेत्रों में व्यक्त हुआ है। यह उस एक दिव्य दीपक के समान है जो चारों और विविध रंगों के शीशों से ढका हुआ हो। उसके भीतर का प्रकाश, दर्शक के दृष्टिकोण के अनुसार भाँति-भाँति के वर्णों एवं छायाओं में प्रकट होता है। यही उस अभिव्यक्ति की विचित्र विविधता है, जिस से कुछ लोग कहते हैं कि हमारा एक समाज नहीं है, एक राष्ट्र नहीं है, यह बहुराष्ट्रीय देश है। यदि हम अपने समाजजीवन के सही मूल्यांकन को ग्रहण करें, तो उसकी वर्तमान व्याधियों का भी विश्लेषण कर सकेंगे तथा उनके उपचार के लिए उपायों की भी योजना करने में समर्थ होंगे।''
हिन्दू समाज में विभेद और विच्छिन्नता निर्माण करना ही जिनका जीवनोद्देश्य है, वे किसी भी कारण को उछालकर कटुता निर्माण करने की चेष्टा करते रहते हैं। उदाहरणार्थ - उत्तर भारत और दक्षिण भारत में विभेद। इस सम्बन्ध में श्री गुरुजी कहते हैं ''सभी दार्शनिक सिध्दान्त हमारे सम्पूर्ण देश में तथा जो उत्तर के भी कोने-कोने में परिव्याप्त हैं, उन्हीं महान् आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित हुए हैं, जिनका जन्म दक्षिण में हुआ है, अनुपम अद्वैत दर्शन के प्रवर्तक शंकर, विशिष्टाद्वैत की भक्ति के आलोक रामानुज, ईश्वर और जीवन की अति उच्च द्वैत भावना जगानेवाले मधवाचार्य तथा विश्व यह ईश्वर के परमानंद स्वरूप की अभिव्यक्ति है, ऐसा माननेवाले वल्लभाचार्य ये सभी दक्षिण के थे। तो क्या हमें कहना चाहिए कि दक्षिण ने दार्शनिक रूप में समस्त देश पर अधिकार जमाया हुआ है। यह कथन कितना असंगत है? अरे, क्या मेरा शीश मेरी टांगों पर अधिकार किये हुए है? क्या दोनों एक शरीर के समान भाव से अंग नहीं हैं?''
श्री गुरुजी की पीड़ा है कि ''हिन्दू नाम जो हमारे सर्वव्यापक धर्म का बोध कराता था, आज अप्रतिष्ठा को प्राप्त हुआ है, लोग अपने को हिन्दू कहने में लज्जा का अनुभव करने लगे हैं। इस प्रकार वह स्वर्णिम सूत्र जिसमें ये सभी आभायुक्त मोती पिरोये हुए थे, छिन्न हो गया है, तथा विविध पंथ एवं मत केवल अपने ही नामपर गर्व करने लगे हैं और अपने को हिन्दू कहलाने से इन्कार कर रहे हैं। कुछ सिख, जैन, लिंगायत, तथा आर्यसमाजी अपने को हिन्दुओं से पृथक घोषित करते हैं। यह कितनी विचित्र बात है?
''वास्तविकता यह है कि ''हिन्दू शब्द जातिवाचक नहीं है। वह सम्प्रदाय का भी वाचक नहीं है। अनादि काल से यह समाज अनेक सम्प्रदायों को उत्पन्न करके एक मूल से जीवन ग्रहण कर रहता आया है। उसके द्वारा यहाँ जो समाजस्वरूप निर्माण हुआ वह हिन्दू है। भले ही यहाँ अलग-अलग राजा हों, राज्य हों, सम्प्रदाय हों, असमानता, भिन्नता हों परन्तु सांस्कृतिक एकता है, एकसूत्र व्यावहारिक जीवन है।''
सब मतों और धारणाओं की चर्चा करने के बाद, निचोड़ के रूप में श्री गुरुजी कहते हैं, ''अपने राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति का जब हम विचार करते हैं, तो हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू समाज का संरक्षण करते हुए ही यह हो सकता है। इसका आग्रह यदि छोड़ दिया तो अपने 'राष्ट्र' के नाते कुछ भी नहीं बचता। केवल दो पैरों वाले प्राणियों का समूह मात्र बचता है। 'राष्ट्र' नाम से अपनी विशिष्ट प्रकृति का जो एक समष्टिरूप प्रकट होता है, उसका आधार हिन्दू ही है। हमें इस आग्रह को तीव्र बनाकर रखना चाहिए। अपने मन में इसके सम्बन्ध में जो व्यक्ति शंका धारण करेगा, उसकी वाणी में शक्ति नहीं रहेगी और उसके कहने का आकर्षण भी लोगों के मनमें उत्पन्न नहीं होगा। इसलिए हमें पूर्ण निश्चय के साथ कहना है, कि हाँ, हम हिन्दू हैं। यह हमारा धर्म, संस्कृति, हमारा समाज है और इनसे बना हुआ हमारा राष्ट्र है। इसी के भव्य, दिव्य, स्वतंत्र और समर्थ जीवन को खड़ा करने के लिए ही हमारा जन्म है।''