हिंदूराष्ट्र
श्रीगुरुजी (हिंदी)   27-Oct-2017
1. यह हिंदूराष्ट्र है, इस राष्ट्र का दायित्व हिंदू समाज पर ही है, भारत का दुनिया में सम्मान या अपमान हिंदुओं पर ही निर्भर है, हिंदू-समाज का जीवन वैभवशाली होने से ही इस राष्ट्र का गौरव बढ़ने वाला है, यह निश्चयपूवर्क समझ कर उस सत्य को संघ ने प्रतिपादित किया। इतने वर्षों से हम यह करते आये हैं तथा किसी के मन में इस विषय में कुछ भ्रान्ति रहने का कारण नहीं है।
2. यह बात अति स्पष्ट है कि हमारे राष्ट्रीय अस्तित्व का आधार राजकीय सत्ता कभी नहीं रही। अन्यथा हमारा भी भाग्य उन राष्ट्रों से अच्छा नहीं होता, जो आज केवल अजायबघर की दर्शनीय वस्तु मात्र रह गये हैं। राजकीय सत्ताधारी हमारे समाज के आदर्श कभी नहीं थे। वे हमारे राष्ट्रजीवन के आधार के रूप में कभी स्वीकृत नहीं हुए। संपत्ति एवं सत्ता के ऐहिक प्रलोभनों से ऊपर उठे हुए और सुखी, श्रेष्ठ गुणों से संपन्न एवं एकात्मता से युक्त समाज की स्थापना के लिये अपने को समग्र भावेन समर्पित करनेवाले संत-महात्मा ही इसके पथ-प्रदर्शक रहे हैं। वे धर्मसत्ता का प्रतिनिधित्व करते थे। राजा तो उस उच्चतर नैतिक सत्ता का एक उत्कृष्ट अनुगामी मात्र था। अनेक बार विपरीत परिस्थितियों में एवं आक्रामक शक्तियों के कारण अनेक राज्य सत्ताओं ने धूल चाटी। किन्तु धर्मसत्ता समाज को छिन्न-विच्छिन्न होने से सदैव बचाती रही।
3. प्रत्येक राष्ट्र का अपना विशिष्ट जीवन-संगीत रहता है और उसी की लयतरंग में राष्ट्र प्रगति पथ पर अग्रेसर होता है। अपने हिंदूराष्ट्र ने भी अनादि काल से एक अनुपम विशिष्टता को सुरक्षित रखा है। हमारे लिये भौतिक सुख के स्वरूप अर्थात् अर्थ (सम्पत्ति का संचय) और 'काम' (भौतिक तृष्णाओं का समाधान) मनुष्य के एक अंश मात्र हैं। हमारे महान पूर्वजों ने घोषणा की है कि मानव पुरुषार्थ के दो और भी पहलू हैं और वे हैं 'धर्म' एवं 'मोक्ष'। उन्होंने हमारे समाज की रचना इस चतुर्विध प्राप्ति के आधार पर की है। यह चतुर्विध पुरुषार्थ हैं - अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष। अति प्राचीनकाल से हमारा समाज केवल संपत्ति एवं वैभव के लिये ही प्रसिध्द नहीं रहा है, वरन् इससे भी अधिक जीवन के उन अन्य दो पहलुओं के लिये रहा है। इसीलिये हम उच्च नैतिक, आध्यात्मिक एवं दार्शनिक लोग कहे जाते हैं, जिन्होंने अपना अंतिम लक्ष्य ईश्वर से सीधा संपर्क करने अर्थात् मोक्ष से कम नहीं रखा।
4. राष्ट्र-कल्पना परिस्थिति के अनुसार बदलनेवाली वस्तु नहीं है। मनुष्य का मनुष्यत्व नौकरी पर निर्भर नहीं करता। किसी ने अपना व्यवसाय बदला तो उसका शरीर और गुणधर्म नहीं बदलता। विदेशी सत्ता रहने से उस सत्ता के सहारे ही अन्य समाज उद्दण्ड होते रहे हैं। इसलिये हिंदू-राष्ट्रवाद का मंडन प्रतिक्रियात्मक बात समझी गई। हिंदू-राष्ट्र की कल्पना यह एक सत्य है, इस दृष्टि से संघ ने उस भावना का जागरण किया। विदेशी शासन से संघर्ष रहते हुए भी हिंदू-राष्ट्रीयत्व की घोषणा संघ ने की, उस भावना की जागृति से समाज संगठित कर बलशाली और चैतन्ययुक्त करने का प्रयास किया। आज जब विदेशी सत्ता नहीं रही है तब ये प्रयास अधिक जोर से होने चाहिये, यही विचार परिस्थिति में हुए स्थूल परिवर्तन के कारण अपने अंत:करण में आना चाहिए।
5. सबसे पहला कर्तव्य है जिस देश को अनंतकाल से हमने अपनी पवित्र मातृभूमि माना है, उसके लिये ज्वलन्त भक्ति-भावना का आविर्भाव। द्वितीय है साहचर्य एवं भ्रातृत्व भावना, जिसका जन्म इस अनुभूति के साथ होता है कि हम एक ही महान माता के पुत्र हैं। तृतीय है, राष्ट्र-जीवन की समान धारा की उत्कट चेतना जो समान संस्कृति एवं समान पैतृक दाय, समान इतिहास, समान परम्पराओं, समान आदर्शों एवं आकांक्षाओं से उत्पन्न होती है। जीवन के मूल्यों की यह त्रिगुणात्मक मूर्ति एक शब्द में हिंदू राष्ट्रीयता है जो राष्ट्र-मन्दिर के निर्माण के लिये आधार बनती है।