सार्वत्रिक बंधुभाव की बात तो सभी करते हैं। लेकिन जगत् में फैले मानव-मानव में भ्रातृभाव का जागरण कैसे होगा, उसका आधार क्या है, इसपर एकवाक्यता नहीं बनती। सब ईसाई बनेंगे तो भ्रातृभाव वैश्विक होगा, या सब मुस्लिम बनेंगे तो भ्रातृभाव वैश्विक होगा, या दुनिया में सभी जगह क्रांति होकर सर्वहारा की प्रभुसत्ता बनेगी तो भ्रातृभाव पैदा होगा ऐसा विशिष्ट मतावलंबी लोगों का कहना है। श्री गुरुजी ने कभी नहीं कहा कि दुनिया ने हिंदू बनना चाहिए। उन्होंने कहा पहले हम परिपूर्ण मानव बनने का प्रयास करें। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चतुर्विधा पुरुषार्थ को अपने जीवन में चरितार्थ करना ही परिपूर्ण मानव बनना है। ''संसार को इन चारों पुरुषार्थों के चिरंतन सत्य का बोध कराने की हमारे अंदर क्षमता आनी चाहिए। हमारे ऊपर यह दायित्व है कि हम जगत् के यच्चयावत् मानव को अपने उदाहरण और आदर्श से इस सत्य का बोधा कराएँ। यह बात जगत् के लिए कल्याणकारी भी है।''
(श्रीगुरुजी समग्र: खंड 5, पृष्ठ 131)
यह क्षमता जाति-पाँति में बँटने से नहीं आएगी,छुआ-छूत का पालन करने से नहीं आएगी, ऊँच-नीच का भाव संजोग कर नहीं आएगी। समरस समाज जीवन खड़ा होने से ही इस क्षमता का हमारे अंदर उदय होगा। भाईचारा, भ्रातृभाव जीवन में कैसे लाना यह खुद जीकर दुनिया के सामने उसका उदाहरण हमको रखना पड़ेगा। श्री गुरुजी की सोच की दिशा इसप्रकार की थी। श्री गुरुजी ने हिंदू समाज संघटन के कार्य को अपना जीवन लक्ष्य माना। हिंदू संघटन याने सभी हिंदुओं में समानता, भ्रातृभाव और एकात्मता का बोध निर्माण करना। एक- दूसरे के साथ मानसिक दृष्टि से समरस हुए बिना भ्रातृभाव-एकात्मता संभव नहीं। उनके जीवन का मंत्र था, 'मैं नहीं तू ही।' मैं और तू कोई अलग चीज नहीं, एक ही परमतत्त्व का अलग रूप हैं। तुझ में मैं और मुझ में तू समाया हुआ है, यह उनकी आत्मानुभूति थी। इस कारण वे कोई श्रेष्ठ-कनिष्ठ, छोटा-बड़ा, सवर्ण-अवर्ण, स्पृश्य-अस्पृश्य ऐसा भाव नहीं रखते थे। सभी मानव- मात्र के विषय में उनके अंत:करण में विशाल प्रेम-सरिता का प्रवाह निरंतर बहता था। अपने व्यक्तिगत जीवन में वे समरस पुरुष बन गए थे। समरसता का एक जीता-जागता चलता-फिरता आदर्श ही उन्होंने अपने जीवन से खड़ा किया। यही उनकी श्रेष्ठतम विशेषता है।