1. धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीयता को समानार्थी मानने के कारण एक बड़ा वैचारिक संभ्रम उत्पन्न होता है। ये दोनों शब्द किसी भी अर्थ में समानार्थी नहीं हैं। राष्ट्र एक परिपूर्ण प्राणवान् घटक है। राष्ट्रजीवन के अनेक अंग-उपांग होते हैं। उनमें से शासन करनेवाली संस्था उसका एक अंग है। परन्तु धर्मनिरपेक्षता शासनसंस्था के अनेक गुणविशेषों में से एक गुणविशेष है। इसलिये धर्मनिरपेक्षता व राष्ट्रीयता को समानार्थी कहने का अर्थ शरीर के किसी अवयव के कार्य को संपूर्ण शरीर का कार्य कहने के समान है। राष्ट्र और राज्य के मूलभूत स्वरूप के विषय में अज्ञान होने के कारण ही ऐसा होता है। यह बहुत ही खेदजनक है।
2. लोग समझते हैं कि दुनिया के इतिहास में राजनीतिक कार्य ही चिरंजीव हुए हैं। जब कि यह सत्य नहीं है। मान्धाता जैसे महीपति नष्ट हो गए। यहाँ तक की ज्ञानेश्वरी में कहा है, कि पुराण भी केवल मरे हुओं की कहानियाँ मात्र ही हैं। राजनीतिक विचार-प्रणाली, पंथ, सम्प्रदाय, राज्य कुछ भी चिरंजीव नहीं रहे। जल्दी हो या देर से पर नष्ट हो गए। धर्म पर जो अटल हैं, वे ही जीवित हैं।
3. आजकल इस प्रकार एक ही साँचे में व्यक्ति को जकड़ने का प्रयोग विदेशों में चल रहा है। जिस देश में भाषा, कृति व विचारों को एक निश्चित साँचे में जकड़ कर, किसी एक व्यक्ति के मार्गदर्शन में सबको चलाने का प्रयास किया गया, वहाँ एक प्रकार का दहशत का वातावरण है। अब अपने देश में भी उसका अनुकरण करने की चेष्टा हो रही है। किसी एक ही ढाँचे में सबके जीवन को जकड़ डालना, हमारी संस्कृति को अभिप्रेत नहीं। इस प्रकार का साँचेबंद जीवन हमारी परंपरा में निकृष्ट और त्याज्य माना गया है। यदि सभी लोगों के वर्ण, नाक, कान एक जैसे ही हो जाएँ, उसमें कोई भी भिन्नता न रहे, तो एक दूसरे को देखकर अंत:करण ऊबने लगेगा। प्रत्येक की प्रतिमा अलग-अलग ही चाहिये। विविधता देखकर मन प्रसन्न होता है; विविधता से जीवन में सरसता उत्पन्न होती है।