वर्णव्यवस्था
श्रीगुरुजी (हिंदी)   27-Oct-2017
श्री गुरुजी के संदर्भ में जानबूझकर एक गलत अवधारणा फैलाई गई है कि श्री गुरुजी विषमतामूलक चातुरर्वण्य के पक्षधर थे। चातुरर्वण्य व्यवस्था को फिर से हिंदू समाज में क्रियान्वित करना यही उनका हेतु था। समाज चार वर्णों में तथा हजारों जातियों में बँटा रहे यही उनकी मनीषा थी। वास्तविकता इससे बिल्कुल उलटी है। इसीलिए वास्तविकता को समझना नितांत आवश्यक है। समाज एक जीवमान संकल्पना है, ऐसी श्री गुरुजी की मान्यता थी। वे खुद विज्ञान के छात्र थे, इसीलिए 'अमिबा' नामक एक- पेशीय जीव का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए वे बताते हैं कि जिस प्रकार एक- पेशीय अमिबा का विकास होते जाता है, 'वैसे-वैसे जीवों की जातियाँ बनने लगती हैं, बढ़ती हुई क्रियाओं को पूर्ण करने के लिए उनके विविध अंग होते हैं, अंत में मनुष्य शरीर बनता है जो अनेक अंगों से संघटित एक अत्यंत संश्लिष्ट यंत्र है।'
(अ.भा. जिला प्रचारक वर्ग, सिंदी, विदर्भ - 1954)
मानव शरीर में विविध अवयव होते हैं, उनके आकार और कार्य भी अलग- अलग होते हैं। लेकिन कोई भी अवयव शरीर की बुराई के लिए काम नहीं करता। परस्परपूरक तथा परस्पर-अनुकूल व्यवहार उनका होते रहता है। शरीर रचना और उनके विभिन्न अंगों में विद्यमान सामरस्य भाव समाज में भी उत्पन्न हो सकता है, ऐसी श्री गुरुजी की मान्यता थी।
श्री गुरुजी का कहना है कि 'समाज एक जीवित वस्तु है (और) मानव-शरीर रचना जीवन के विकास का सर्वोत्तम रूप है और इसलिए यदि किसी जीवमान स्वरूप की रचना करनी हो, तो वह उसके ही अनुरूप होनी चाहिए। समाज रचना भी यदि जीवमान मानव के अनुरूप ही की, तो वह निसर्ग के अनुकूल होने के कारण अधिक उपयुक्त होगी।'
(श्रीगुरुजी समग्र: खंड 2, पृष्ठ 125)
जीवमान मानव के अनुरूप समाज की रचना कैसी बनाई जा सकती है, यह एक जटिल प्रश्न है। मनुष्य तो एक अकेला होता है, उसके जीवमान स्वरूप को हम देख सकते हैं, अनुभव कर सकते हैं। समाज तो मानवों का समूह रहता है। समाजपुरुष नाम से किसी एक जीवमान इकाई को देखना, अनुभव करना इतना आसान काम नहीं है। ऐसी सारी समस्या रहते हुए भी समाज को एक जीवमान स्वरूप में खड़ा करने का प्रयास हमारे पूर्वजों ने किया था। इस संदर्भ में श्री गुरुजी कहते हैं, ''अपने पूर्वजों ने यह भी सोचा कि समाज जीवन की रचना ऐसी करनी है, जहाँ समान गुण एवं समान अंत:करणवाले व्यक्ति एकत्र आ कर, विकास करते हुए, जीवनयापन करने के लिए, जिस मार्ग से वे अधिक उपयोगी सिध्द हो सकें, उसके अनुसार चल सकें।''
 
जीवमान मानव के अनुसार समाज की भी जीवमान रचना करने का प्रयास याने चातुरर्वण्य है। श्री गुरुजी इसे अपने समाज रचना की विशेषता मानते थे। आज चातुरर्वण्य के विषय में निंदाजनक बोलना-लिखना एक फैशन-सा बन गया है। श्रीगुरुजी ने इस populist मार्ग को स्वीकार नहीं किया। विषय की शास्त्रीय चिकित्सा करते समय वे कभी भी apologetic नहीं रहे। चातुरर्वण्य के आज के भेदभावजनक रूप के भी वे कड़े आलोचक रहे हैं। उनका कथन इसप्रकार है, ''अपने मूल रूप में उस समाजव्यवस्था में घटकों के मध्य बड़े-छोटे अथवा ऊँच-नीच की भावना का कोई स्थान नहीं था। समाज के संबंध में यह भावना रखी गई कि वह उस सर्व शक्तिमान परमात्मा का चतुर्दिक अभिव्यक्त स्वरूप है जो सभी के लिए अपनी - अपनी क्षमता एवं पध्दतियों से पूजनीय है। यदि ब्राह्मण विद्यादान के द्वारा बड़ा हो जाता है, तो शत्रुओं का नाश करने से क्षत्रिय भी समान प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है। वैश्य भी कम महत्त्व का नहीं जो कृषि और व्यापार के द्वारा समाज को सुस्थिर रखता है अथवा शूद्र भी कम नहीं है जो अपने कलाकौशल से समाज की सेवा करता है। इन सबके परस्पर एक दूसरे पर निर्भर रहने तथा साथ-साथ परस्पर के 'तादात्म्य भाव से उस पूर्वकालीन समाजव्यवस्था का निर्माण हुआ था।''
(विचार नवनीत, पृष्ठ 109)
हिंदू समाज में जातिप्रथा का उदय कैसे हुआ इसके बारे में श्रेष्ठ विचारकों ने कई सिध्दांत रखे हैं। जिनको आक्रमक आर्य सिध्दांत मान्य हैं वे कहते हैं कि बाहर से आए आक्रामक आर्योंने स्थानीय लोगों को दास बनाकर उनको जातियों में बाँट दिया। इस सिध्दांत के अनुसार आक्रामक आर्य तो यूरोप-रशिया में भी गए, फिर वहाँ के लोगों को उन्होंने जातियों में क्यों नहीं बाँटा? इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं। आजकल की आम धारणा यह है कि मनुस्मृति के रचयिता मनु ने जातिभेदों का निर्माण किया है। महामानव डॉ. भीमराव अंबेडकरजी के अनुसार मनु ने जातिप्रथा का निर्माण नहीं किया। जातिप्रथा एक जटिल रचना है और कोई भी व्यक्ति कितना भी महान क्यों न हो, ऐसी जटिल व्यवस्था का निर्माण उसके बस की बात नहीं है।
 
श्री गुरुजी इस प्रकार के किसी सिध्दांत की चर्चा नहीं करते। जातिप्रथा का धीरे-धीरे विकास होता चला गया। अपने पूर्वजों ने मानवी जीवन की रचना चतुर्विधा पुरुषार्थ में की। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चार पुरुषार्थ माने गए। मनुष्य जीवन का अंतिम साध्य मोक्ष माना गया। मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य भोग नहीं है। मोक्ष याने शाश्वत सुख की खोज यही उसके जीवन का अंतिम पड़ाव है। अपने भीतर का सुख खोजने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को कई विषयों से चिंतामुक्त रहना आवश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति की प्राथमिक चिंता जीवन चलाने की होती है, पेट भरने की होती है। अन्न, वस्त्र, आवास ये तीन उसकी प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं। उनको पर्याप्त मात्रा में प्राप्त करने के लिए कष्ट करने पड़ते हैं। दौड़-धूप करनी पड़ती है। अपनी सभी प्रकार की सुरक्षा की भी चिंता प्रत्येक व्यक्ति को रहती है। अगर आदमी चौबीसों घंटे इसी चिंता में व्यस्त रहे, तो उसका पूर्ण विकास कैसे होगा? मानसिक, बौध्दिक, आत्मिक सुख की प्राप्ति उसे कैसे संभव होगी? श्री गुरुजी इन प्रश्नों का उत्तर देते हैं, वे कहते हैं, ''अपने पूर्वज बड़े व्यावहारिक थे। सामान्य मनुष्य की कामना, वासना आदि का विचार करके उसको अंतिम लक्ष्य तक पहुँचाने की कल्पना उनके सामने थी। इसलिए सामान्य मनुष्य को ऐहिक उदर-भरण के बाद उपासना के लिए निश्चित अवकाश मिलना चाहिए, यह उन्होंने समझा और ऐसी व्यवस्था की कि जन्म पाते ही मनुष्य की रोजी बिल्कुल निश्चित हो जाए। उसके लिए व्यक्ति को परंपरा से प्राप्त व्यवसाय के लिए योग्य बनना और परिवार का पोषण करना इतना ही आवश्यक था। ऐसे भिन्न-भिन्न व्यवसाय के लोगों को उन्होंने एकत्र किया और जातिव्यवस्था के रूप में मानो 'नेशनल इंस्योरेन्स स्कीम विदाउट गव्हर्नमेंट इंटरफिअरेन्स (शासकीय हस्तक्षेप बिना राष्ट्रीय बीमा योजना) निर्माण की। अपने जन्मसिध्द व्यवसाय से परिवार का पोषण करना और आनंद से शांतचित्त होकर परम-तत्त्व का चिंतन और सद्गुणों का आह्वान करना यह हो सकता था।
(अ.भ. जिला प्रचारक वर्ग, सिंदी, विदर्भ- 1954)
समाज एक जीवमान संकल्पना होने के कारण हम सब समाज के अंग हैं, एक ही समाज चैतन्य हममें विद्यमान है। उस चैतन्य भव से हम सब समान हैं, परस्पर पूरक हैं, एक दूसरे के साथ समरस हैं ऐसी श्री गुरुजी की धारणा थी। ''इस धारणा के अनुसार एकात्मता का साक्षात्कार करें, सेतुहिमालय सारे राष्ट्र को महान, श्रेष्ठ, दैवी चैतन्यमय व्यक्तित्व के रूप में देखें और उसके अंग होने के नाते अपने को एक समझें, सब अंगों की पवित्रता पर विश्वास करें।''
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड2, पृष्ठ 102)
मानवी समाज जीवन में निसर्गत: जो असमानता होती है उसे हावी नहीं होने देना यही बुध्दिमानी है। इस असमानता को व्यवसाय निश्चिती, उदरभरण के साधन की निश्चिती, परस्पर सहयोग द्वारा दूर किया जा सकता है। 'मानव प्राणी को उच्चतम सामंजस्य में रहने की योग्यता प्राप्त' करनी पड़ेगी। 'यह एक लंगड़े और अंधे के सहयोग के समान है। लंगडे आदमी को टांग मिली है और अंधे को ऑंख। सहयोग की भावना असमानता की कटुता दूर कर देती है। व्यक्ति और समाज के संबंध का हमारा दृष्टिकोण संघर्ष का न होकर सभी व्यक्तियों में उस एक सत्य का विराजमान होने के बोध से उत्पन्न सामंजस्य और सहयोग का रहा है।'' (विचार नवनीत, पृष्ठ 26-27)
 
श्री गुरुजी ने 'वर्णव्यवस्था' और 'जातिव्यवस्था' ऐसे शब्द प्रयोग किए हैं। 'वर्णभेद' और 'जातिभेद' ये आज के शब्द हैं। आज का इसका स्वरूप 'अधोमुखी विपर्यस्त' है, ऐसी श्रीगुरुजी की मान्यता थी। वर्णव्यवस्था तथा जातिव्यवस्था के कारण हमारा सब प्रकार का पतन हुआ और पारतंत्र्य में चले गए यह कथन श्री गुरुजी को स्वीकार्य नहीं है। यह कथन 'इतिहास शुध्द' नहीं है। श्री गुरुजी का तर्क इस प्रकार है -
''गत सहस्र वर्षों में जब हमारा राष्ट्र विदेशियों के आक्रमण का शिकार बना, एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिलता, जिससे यह सिध्द हो सके कि हमारे राष्ट्र की जिस फूट ने विदेशी आक्रांताओं को सहायता की उसके मूल में यह जातिभेद थे। मुहम्मद घोरी के द्वारा दिल्ली के हिंदू राजा पृथ्वीराज की पराजय का कारण जयचंद था, जो उसका जातिबंधु था। जिस व्यक्ति ने जंगलों में राणा प्रताप का पीछा किया, वह मानसिंह भी उनकी जाति का ही व्यक्ति था। शिवाजी महाराज का भी विरोधा उनकी जाति के लोगों द्वारा हुआ। जाति भेद कभी भी इसका कारण नहीं रहा।''
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड 11, पृष्ठ 116)
(यही सारे उदाहरण संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकरजी के संविधान सभा में 25 नव. 1949 को दिए हुए आखिरी भाषण में मिलते हैं।)
आगे श्री गुरुजी का तर्क है - ''यदि जातिव्यवस्था ही हमारे दौर्बल्य का मूल कारण होती तो हमारा समाज उन समाजों की भाँति, अति सरलता से विदेशी आक्रमणों के समक्ष पराभूत हो गया होता, जिनमें जातियाँ नहीं थीं।'' मुस्लिम आक्रमकों ने 'अनेकों साम्राज्य - ईरान, मिस्र, रोम, यूरोप तथा चीन तक सभी - जो भी उनके मार्ग में आए उनको पैरों के नीचे कुचल दिया। उन देशों के लोगों में जातियाँ और उपजातियों के भेद नहीं थे। हमारे लोगों ने उन भीषण आक्रमणों का दृढ़ता एवं वीरता से सतत एक हजार वर्ष तक सामना किया और उसके द्वारा विनष्ट होने के स्थान पर अंत में हम शत्रु की समस्त शक्तियों को कुचल कर उसे पूर्ण रूप से नष्ट करने में सफल हुए।''
(श्रीगुरुजी समग्र : खंड 11, पृष्ठ 116-117)
इसका यह अर्थ निकालना कि आज जिस अवस्था में वर्णभेद, जातिभेद है उसे बनाए रखना चाहिए, समाज के लिए आवश्यक है, बिल्कुल गलत होगा। श्री गुरुजी की यह अवधारणा नहीं थी। आज तो केवल विकृति ही बची है। इसलिए उसे समाप्त करना ही उचित होगा। श्री गुरुजी के शब्दों में, ''निस्संदेह आज जाति-व्यवस्था सभी प्रकार से भ्रष्ट हो गई है। मैंने एक बार किसी से कहा था कि नया मकान बनाने के लिए पुराना मकान कई बार तोड़ना पड़ता है। आज जो विकृत बनी हुई समाजरचना है उसको यहाँ से वहाँ तक तोड़-मरोड़ कर सारा ढेर लगा देंगे। उसमें से आगे चलकर जो विशुध्द रूप बनेगा सो बनेगा। आज तो सब का एकरस ऐसा समूह बना कर, अपने विशुध्द राष्ट्रीयत्व का संपूर्ण स्मरण हृदय में रखकर, राष्ट्र के नित्य चैतन्यमय व सूत्रबध्द सामर्थ्य की आकांक्षा अंत:करण में जागृत रखनेवाला समाज खड़ा करना है।''
(इंदौर वर्ग, श्रीगुरुजी समग्र दर्शन खंड 4, पृष्ठ 32/33(पुराना)
अनेकों बार कई कार्यकर्ताओं ने श्री गुरुजी से वर्ण तथा जातिव्यवस्था के बारे में प्रश्न पूछे हैं। इन प्रश्नों के उत्तर में श्रीगुरुजी का वर्ण तथा जातिव्यवस्था के बारे में दृष्टिकोण बिल्कुल साफ हो जाता है। उदाहरण के लिए कुछ प्रश्न और श्री गुरुजी द्वारा दिए गए उनके उत्तर इस प्रकार हैं:-
 
प्रश्न : यह हिंदू राष्ट्र है इस सिध्दांत पर जो आपत्ति करते हैं वे समझते हैं कि पुराने जमाने में जाति और वर्ण-व्यवस्था थी उसी को लाकर, उसके आधार पर छुआछूत बढ़ाकर ब्राह्मणों का वर्चस्व प्रस्थापित किया जाएगा। ऐसे विकृत विचारों और विपरीत अर्थ का वे हम पर आरोप करते हैं। और कहते हैं कि यह विचार देश के लिए संकटकारी और घातक है।
उत्तर : अपने यहाँ कहा गया है कि इस कलियुग में सब वर्ण समाप्त होकर एक ही वर्ण रहेगा। इसको मानो। वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था का नाम सुनते ही अपने मन में हिचकिचाहट उत्पन्न होकर हम 'अपोलोजेटिक' हो जाते हैं। हम दृढ़तापूर्वक कहें कि एक समय ऐसी व्यवस्था थी। उसने समाज पर उस समय उपकार किया। आज उपकार नहीं दिखता, तो हम उसको तोड़कर नई व्यवस्था बनाएंगे। जीवशास्त्र में विकास बिल्कुल सादी रचना से जटिलता की ओर होता है। जीव की सब से प्राथमिक अवस्था में हाथ, पैर कुछ नहीं होते। मांस का लोथ रहता है। उसी से खाना, पीना, निकालना आदि सब काम वह करता है। जैसे-जैसे उसका विकास होता है, वैसे-वैसे 'फंक्शनल ऑर्गन्स' प्रकट होने लगते हैं। यह 'इव्होल्युशनरी प्रोसेस' सामाजिक जीवन में है। जिन में ऐसा नहीं है वे प्रिमिटिव सोसायटीज हैं । केवल मारक अस्त्र बना लेना विकास नहीं। हम तो समाज को ही भगवान मानते हैं, दूसरा हम जानते नहीं। उसका कोई अंग अछूत नहीं, हेय नहीं। एक-एक अंग पवित्र है यह हमारी धारणा है। इसमें तर तम भाव अंगों के बारे में उत्पन्न नहीं हो सकता। हम इस धारणा पर समाज बनाएंगे। भूतकाल के बारे में ऍपोलॉजेटिक होने की कोई बात नहीं। दूसरों से कहें कि तुम क्या हो? मानव सभ्यता की शताब्दियों लंबे कालखंड में तुम्हारा योगदान कितना रहा? आज भी तुम्हारे प्रयोगों में मानव-कल्याण की कोई गारंटी नहीं। तुम हमें क्या उपदेश देते हो? यह हमारा समाज है। अपना समाज हम एकरस बनाएँगे। उसका अनेक प्रकार का कर्तृत्व, उसकी बुध्दिमत्ता सामने लाएँगे, उसका विकास करेंगे।
प्रश्न : जाति के विषय में आपका निश्चित दृष्टिकोण क्या है?
उत्तर : संघ किसी जाति को मान्यता नहीं देता। उसके समक्ष प्रत्येक व्यक्ति हिंदू है। जाति अपने समय में एक महान संस्था थी, किंतु आज वह देश-कालबाह्य है। जो लचीला न हो वह शीघ्र ही प्रस्तरित (विपस) वस्तु बन जाता है। मैं चाहता हूँ कि अस्पृश्यता कानूनी रूप से ही नहीं प्रत्यक्ष रूप से भी समाप्त हो। इस दृष्टि से मेरी बहुत इच्छा है कि धार्मिक नेता अस्पृश्यता-निवारण को धार्मिक मान्यता प्रदान करें। मेरा यह भी मत है कि मनुष्य का सच्चा धर्म यही है कि उसका जो भी कर्तव्य हो, उसे बिना ऊँच-नीच का विचार किए, उसकी श्रेष्ठतम योग्यता के साथ वहन करें। सभी कार्य पूजास्वरूप हैं और उन्हें पूजा की भावना से ही करना चाहिए। मैं जाति को प्राचीन कवच के रूप में देखता हूँ। अपने समय में उसने अपना कर्तव्य किया, किंतु आज वह असंगत है। अन्य क्षेत्रों की तुलना में पश्चिम पंजाब व पूर्व बंगाल में जाति-व्यवस्था दुर्बल थी, यही कारण है कि ये क्षेत्र इस्लाम के सामने परास्त हुए। यह स्वार्थी लोगों द्वारा थोपी गई अनिष्ट बात है कि जाति-व्यवस्था के कारण हम पराभूत हुए। ऐसी अज्ञानमूलक निर्भत्सना के लिए मैं तैयार नहीं हूँ। अपने समय में वह एक महान संस्था थी तथा जिस समय चारों ओर अन्य सभ कुछ ढहता-सा दिखाई दे रहा था, उस समय वह समाज को संगठित रखने में लाभप्रद सिध्द हुई।
प्रश्न : क्या हिंदू संस्कृति के संवर्धन में वर्णव्यवस्था की पुन: स्थापना निहित है?
उत्तर : नहीं। हम न जातिप्रथा के पक्ष में हैं और न ही उसके विरोधक हैं। उसके बारे में हम इतना ही जानते हैं कि संकट के कालखंड में वह बहुत उपयोगी सिध्द हुई थी और यदि आज समाज उसकी आवश्यकता अनुभव नहीं करता, तो वह स्वयं समाप्त हो जाएगी। उसके लिए किसी को दुखी होने का कारण भी नहीं।
प्रश्न : क्या वर्णव्यवस्था हिंदू समाज के लिए अनिवार्य नहीं है?
उत्तर : वह समाज की अवस्था या उसका आधार नहीं है। वह केवल व्यवस्था या एक पध्दति है। वह उद्देश्य की पूर्ति में सहायक है अथवा नहीं, इस आधार पर उसे बनाए रख सकते हैं अथवा समाप्त कर सकते हैं।