चरित्र
श्रीगुरुजी (हिंदी)   27-Oct-2017
1. राष्ट्रीय चारित्र्य का मूलाधार तादात्म्य तथा प्रेम है। यह मेरा राष्ट्र है, मैं इसका अंश मात्र हूँ, इसकी भलाई मेरी भलाई है, मैं मरूँ, चाहे परिवार डूबे, किन्तु राष्ट्र जिए, राष्ट्र अच्छा रहे- यह भाव जब उत्पन्न होता है, तब राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण होता है। मेरे कार्य से भले ही लाभ न हो, कम से कम हानि तो न हो- यह भाव उत्पन्न होने पर चारित्र्य प्रकट होता है। जब यह विचार जाग्रत होता है और अहोरात्र राष्ट्र-चिन्तन होता है, राष्ट्र को उठाने का, राष्ट्र को सुखी करने का, राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति के प्रति कर्तव्य पूर्ति का विचार होता है, मैं अपने बारे में न सोचूँगा, राष्ट्र सुखी है या नहीं केवल यही सोचूँगा, मैं रहा या न रहा, उससे क्या, राष्ट्र रहना चाहिये - जब इस प्रकार का भाव जागृत होता है, तब इस राष्ट्र-प्रेम से परिपूर्ण राष्ट्र-कल्पना से विशुध्द चारित्र्य उत्पन्न होता है।
2. सब विद्वानों ने विचार कर यह बात रखी है कि चरित्र या स्नेह का आधार एकात्मता है। जो इस एकात्मता को पहचानेगा, वही स्नेह कर सकेगा, वही असुखी होते हुए भी प्रेम करेगा। अत: केवल चारित्र्य का आग्रह करने से चारित्र्य निर्माण नहीं होगा, उसके लिये ठोस आधार लेना पड़ेगा। भारत में प्राचीन काल से चला आनेवाला हमारा संस्काररूप जीवन जिसे संस्कृति कहते हैं, वही सामान्य अधिष्ठान है। उसके जागरण से ही एकात्मता संभव है। प्रत्येक व्यक्ति एकात्मता का व्यक्त रूप है, यह समझ कर समाज की सेवा करना ही धर्म है। जैसे कि जीवाणु शरीर की सेवा करते हैं, कोई भी आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करता; वैसे ही समाज को एकात्मस्वरूप जानकर (केवल मानकर नहीं) अपने जीवन को समष्टिरूप समाज की सेवा में लगा देना ही जीवन का साफल्य है। एकात्मता का भाव ही सुंसगठित रूप दे सकेगा। इस प्रकार के सांस्कृतिक विचारों को लेकर ही हम समाज की पुनर्रचना करना चाहते हैं।
3. शारीरिक शक्ति आवश्यक है, किन्तु चरित्र उससे भी अधिक महत्व का है। बिना चरित्र के केवल शक्ति मनुष्य को पशु बना देगी। वैयक्तिक तथा राष्ट्रीय दृष्टिकोण से भी चरित्र की शुध्दता राष्ट्र के वैभव एवं महानता की जीवन-प्राण होती है।
4. यदि महान जागतिक लक्ष्य में हम सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें प्रथम अपना उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। हमें विदेशी वादों की मानसिक शृंखलाओं और आधुनिक जीवन के विदेशी व्यवहारों तथा अस्थिर 'फैशनों' से अपनी मुक्ति कर लेनी होगी। परानुकरण से बढ़कर राष्ट्र की अन्य कोई अवमानना नहीं हो सकती। हम स्मरण रखें कि अन्धानुकरण का अर्थ प्रगति नहीं होता। वह तो आत्मिक पराधीनता की ओर ले जाता है।