परिशिष्ट
श्रीगुरुजी (हिंदी)   27-Oct-2017
विश्व हिन्दू परिषद द्वारा आयोजित कर्नाटक प्रान्त सम्मेलन सफलतापूर्वक सम्पन्न होने के पश्चात कर्नाटक के कार्यकर्ताओं को श्री गुरुजी द्वारा लिखा हुआ पत्र विश्व हिन्दू परिषद का कर्नाटक प्रान्त सम्मेलन संपन्न हुआ। आयोजक तथा कार्यकर्ताओं की अपेक्षा से कई गुना अधिक सफल वातावरण में संपन्न हुआ। इसलिए स्वाभाविक है कि हमारी अपेक्षाएँ भी बढ़ेंगी। पर इस का अर्थ यह नहीं कि कोई चमत्कार होगा और स्थिति बदलेगी। अनुगामी कार्य बढ़ाने की बहुत आवश्यकता है। सम्मेलन मानो ऐसा हुआ, जैसे हिन्दू समाज की एकता और परिवर्तन के लिए फूँका गया शंख। पर इस यश से हमें आत्मसंतुष्ट नहीं रहना चाहिए।''
 
''एक उदाहरण प्रस्तुत करता हँ। अस्पृश्यता का अभिशाप नष्ट करने का प्रस्ताव पारित हुआ। हमारे सभी पंथों के सभी आचार्य, धर्मगुरु तथा मठाधिपतियों ने इस प्रस्ताव को पूरा समर्थन और आशीर्वाद दिया। परंतु इस प्रस्ताव को प्रत्यक्ष आचरण में उतारने के लिए केवल पवित्र शब्द काफी नहीं है। सदियों की कुरीतियाँ केवल शब्द और सद्भावना से नहीं मिटतीं। अथक परिश्रम और योग्य प्रचार करना पड़ेगा। नगर- नगर, गाँव-गाँव, घर- घर में जा कर लोगों को बताना पड़ेगा कि अस्पृश्यता नष्ट करने का निर्णय हो चुका है। और यह केवल समय की आधुनिकता के दबाव में नहीं, बल्कि हृदय से हुआ परिवर्तन है। भूतकाल में हम ने जो गलतियाँ की हैं, उसे सुधारने के लिए अंत:करण से इस परिवर्तन को स्वीकार कीजिए। अंत:करण में, नैतिकता में, भाव में, बर्ताव में परिवर्तन लाना अत्यंत आवश्यक है। पिछड़े हुए समाज का आर्थिक, राजनीतिक स्तर सुधार कर उन्हें सारे समाज के साथ लाना एक अत्यंत कठिन कार्य है। पर यह भी काफी नहीं है; क्योंकि ऐसी 'लाई हुई समानता' में अलगाव का भाव तो है ही। इसलिए केवल आर्थिक और राजनीतिक समानता से काम नहीं बनेगा। हमें सच्चा परिवर्तन, संपूर्ण एकात्मता लानी है। यह परिवर्तन आना सरकार, राजनीतिक पक्ष आदि के बस की बात नहीं है। एकात्मता के नाम पर जोड़-तोड़ की चालाक जादूगरी दिखाने वाले राजनीतिक पक्षों को यह कार्य नहीं जमेगा। अंत:करणपूर्वक कार्य करना, नैतिक और आधयात्मिक स्तर पर इस कार्य को बढ़ाते रहना आवश्यक है। सम्मेलन में उपस्थित सभी लोग, सम्मेलन के प्रति आस्था रखने वाले भी लोग एकत्रित हों और कंधे से कंधा मिला कर इस जगन्नाथ के रथ पर जुट जाओ और एक ही शक्तिशाली प्रहार से इस प्राचीन कुप्रथा को नष्ट कर दो।''
 
''दूसरा भी एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। हमारे समाज को धर्म के तत्त्वों के बारे में शिक्षित करना। इस में सर्वसाधारण धर्म के तत्त्व, सर्वसमावेशक धर्म के तत्त्व तथा लोगों ने जिस पंथ में जन्म लिया है उस के तत्त्व आदि सारी बातें आती हैं। इस शिक्षा का प्रारंभ हम ने स्वयं से ही करना आवश्यक है; क्योंकि जो व्यक्ति खुद शिक्षित है तथा उस शिक्षा के तत्त्व अपने खुद के आचरण में लाता है, उसी का कहना लोग मानते हैं। संपूर्ण विश्वास, संपूर्ण भक्ति, विशुध्द चरित्र, विशुध्द शब्द, विशुध्द भाव और कार्य ही व्यक्ति को दूसरों को शिक्षा देने का अधिकार देते हैं। इसलिए हमें स्वयं में यह सारे गुण निर्माण करने चाहिए।''
''हमें यह शिक्षा देने के लिए देश के कोने-कोने में जाना आवश्यक है। दूर-दूर तक के गाँवों में, पहाड़ों में, घने जंगलों में; ऐसे लोगों के पास जिन के लिए धर्म एक अंधविश्वास मात्र रह गया है या धर्म तत्त्व सीखने का और उन का आचरण करने का मौका ही उन्हें कभी प्राप्त नहीं हुआ है। हमें यह कार्य करते हुए अपरिमित कष्ट, संकट झेलने पड़ेंगे। शायद कोई हमें धन्यवाद भी न देगा। परंतु कोई चमत्कार या तुरंत परिणामों की हम अपेक्षा ही न रखें। कठिनाइयों का सामना करते, अत्यंत संयम के साथ हम आगे बढ़ेंगे - एक सच्चे कर्मयोगी की तरह।''
 
''सभी दोषों के लिए दूसरों पर अंगुलि उठाने में कुछ कार्यकर्ताओं को आनंद आता है। कुछ लोग राजनीति की विकृतियों पर दोषारोपण करते हैं। तो कुछ लोग ईसाई, इस्लाम तथा अन्य आक्रमक पंथों की आलोचना करते रहते हैं। हमारे कार्यकर्ता ऐसे पूर्वाग्रहों से स्वयं को मुक्त रखें और अपने लोग, अपना धर्म इन के लिए सच्चे भाव से कार्य करें। हमारे जिन बंधुओं को सहायता की आवश्यकता है, उन की मदद कर उन का दुख दूर करें। इस सेवा कार्य में कोई भेदभाव न करें। हमें सब की सेवा, सहायता करनी है; फिर चाहे वह ईसाई हो, मुसलमान हो या अन्य किसी पंथ का हो; क्योंकि संकट, मुसीबतें, दुख तो सभी पर बरस पड़ते हैं। वे कोई भेदभाव नहीं करते और किसी भी दुखी व्यक्ति की सहायता करना, केवल सांत्वना और अनुकंपा के भाव से नहीं, बल्कि सर्वात्मक, सर्वव्यापक परमेश्वर की सेवा इस भाव से सहायता करना, अपना सर्वस्व उस की विनम्र सेवा में समर्पण करना; जो हमारे माता, पिता, बंधु, मित्र और सबकुछ हैं। यही तो हमारे धर्म का सच्चा भाव है।''
''हमारा यह कार्य हमारे सनातन धर्म का सारा वैभव और तेजस्विता सारे विश्व में फैलाएँ।''
- मा. स. गोलवलकर
मकर संक्रमण, शक 1898
दि. 14-1-1970