श्री गुरुजी के महान व्यक्तित्व में समर्थ स्वामी रामदास की भक्ति तथा शिवाजी महाराज की शक्ति का अपूर्व संगम था। उनमें राम-कृष्ण की तपस्या और विवेकानन्द के तेज का समन्वय था। आत्मविस्मृत हिन्दू समाज को स्वत्व का साक्षात्कार कराके श्री गुरुजी ने उसे संगठित शक्तिशाली था आत्मविश्वास से परिपूर्ण बनाने के राष्ट्रकार्य के लिए अपने शरीर का कण-कण और जीवन का क्षण-क्षण समर्पित कर दिया।
समन्वय के सुमेरु श्री गुरुजी
विभूतिमत्व की विराटता शब्दों में बांधना छोटी डोंगी से सागर-संतरण जैसा दुस्साहसी प्रयास है। भारत माता के अनन्य प्रतिभापुत्र, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक ऋषिकल्प पूज्य श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर (गुरुजी) की 33 वर्षीय अखण्ड राष्ट्र-साधाना ऐसी ही है। 1940 से 1973 तक राष्ट्र की सांस्कृतिक पतवार थामने वाले उनके हाथों ने भारत की भाग्य-तरी को कभी भ्रमित नहीं होने दिया और सदैव अचूक मार्गदर्शन करते रहे। राष्ट्र के शाश्वत अधिष्ठान पर आधारित समाधान हस्तामलकवत् प्रस्तुत होते रहे। सुविख्यात हिन्दू-हितैषी पं. मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित एशिया के विशालतम शिक्षाकेन्द्र बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राणिशास्त्र तथा साथ में अंग्रेजी के भी प्राध्यापक श्री गोलवलकर का ज्ञान-गांभीर्य तो गजब का था ही, इससे भी अधिक प्रेरणादायी व प्रभावी था उनका व्यक्तित्व और कर्तृत्व। भाषा, भावना व भूषा से प्राचीन भारतीय ऋषियों की याद दिलाने वाले उनके स्वरूप को देख उनके छात्रों ने श्रध्दा से अभिभूत होकर उन्हें 'गुरुजी' के नाम से सम्बोधित करना प्रारम्भ कर दिया। संघ के सम्पर्क में आने से पूर्व प्रदत्त यह स्नेहिल उपनाम ही उनकी गरिमामय पहचान बन गया और वे अपने संगठन में ही नहीं, अपितु सर्वत्र-विश्व भर में- इसी नाम से विख्यात हुए। रामकृष्ण मिशन में स्वामी विवेकानंद जी के गुरुभाई स्वामी अखण्डानंद जी से दीक्षा प्राप्त कर चुके श्री गुरुजी का पिण्ड मूलत: आध्यात्मिक ही था। किन्तु डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा प्रणीत विलक्षण हिन्दू संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आने तथा पश्चात् उसका शीर्ष दायित्व सरसंघचालक पद स्वीकारने के बाद श्री गुरुजी ने इस सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन में प्रवेश करके समाज-संगठन के ज्ञान में पारंगत बनकर आधुनिक भारत में अप्रतिम हिन्दू-जागरण द्वारा विश्व-विश्रुत हिन्दू संगठन खड़ा कर दिया। उन्होंने डॉ.हेडगेवार द्वारा वपित बीज को विशाल वटवृक्ष में बदलकर हिन्दू समाज को उसकी शीतल छाया में चहचहाने का दीर्घकालीन किंवा चिरकालीन सौभाग्य प्राप्त करा दिया। ध्येय को ही देव कहकर अपने हृदय-मंदिर में बसाने वाले डॉ. हेडगेवार जी को अपना आराध्य मानकर श्री गुरुजी मनसा, वाचा, कर्मणा उन्हीं की ध्येय-धारा में रच-बस गये और अपनी कर्म-साधना से आजीवन यह सुवासित स्वर लहरी गुँजाते रहे-
हमें मिली प्रेरणा तुम्हारी, पावनतम स्मृति से।
लक्ष्य तुम्हारा प्राप्त किये बिन, चैन नहीं हम लेंगे॥
आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि, दार्शनिक दृष्टिक्षेप, वैज्ञानिक विश्लेषण तथा सांगठनिक स्नेहिलता से युक्त श्री गुरुजी का चिन्तन इतना मूलगामी तथा विषय-प्रतिपादन इतना हृदयग्राही, तथ्यपरक व तर्क संगत रहता था कि वह श्रोता के मन-मस्तिष्क को झकझोरे बिना नहीं रहता था।