दुर्बलता का संबंध शरीर से नहीं, मन से होता है। इस संबंध में श्री गुरुजी ने अपने जीवन का यह प्रसंग एक बार सुनाया था। छात्र-जीवन में माधवराव अपने एक मित्र के साथ घूमने गये। एक सिनेमाघर के बाहर बहुत भीड़ देखकर वे रुक गये। पूछने पर पता लगा कि फिल्म तो समाप्त हो गयी है; पर महिलाओं वाले दरवाजे पर दो अंग्रेज खड़े हैं। उन्होंने शराब भी पी रखी है। वहाँ पुलिस भी थी और सिनेमा का प्रबन्धक भी; पर सब उनसे भयभीत थे। यह देखकर माधवराव ने अपने मित्र से कहा - चलो, हम चलकर उन्हें हटाते हैं। पर वह मित्र भी डर गया। अब माधवराव ने अकेले वहाँ जाकर पहले तो उन्हें अंग्रेजी में डाँटा; पर जब वे नहीं हटे, तो उन्होंने एक का गला पकड़कर जोर से चाँटा जड़ दिया। चाँटा लगते ही उनका नशा उतर गया और वे वहाँ से भाग गये। श्री गुरुजी कहते थे कि जब मेरे जैसा दुबला-पतला आदमी उनसे भिड़ सकता है, तो क्या इतना बड़ा भारत अंग्रेजों से नहीं लड़ सकता ? वस्तुत: हमारा शरीर नहीं, मन दुर्बल है। अत: पहले उसकी दुर्बलता दूर करना आवश्यक है।
हमारा लक्ष्य
श्री गुरुजी प्रवास के समय अनेक लोगों से मिलते थे। ऐसे लोग उन्हें संघ के बारे में तरह-तरह के परामर्श देते थे। गुरुजी सबकी बात सुनते थे। जब कार्यकर्ता इस बारे में उनकी प्रतिक्रिया पूछते थे, तो वे यह कथा सुनाते थे। एक युवक बहुत बुध्दिमान, ओजस्वी वक्ता एवं अति सुंदर था। इतना ही नहीं, वह परिश्रमी एवं अध्ययनशील भी था। उसके परिचित उसे भविष्य के बारे में तरह-तरह के सुझाव देते रहते थे। एक ने कहा - तुम्हारी भाषणशैली एवं तर्कशक्ति इतनी प्रभावी है कि यदि तुम वकील बनो, तो सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँच जाओगे और बहुत सफलता पाओगे। दूसरे ने कहा - तुम्हारा अध्ययन इतना गहरा है कि तुम्हें प्राध्यापक बनना चाहिए। तुम कई ग्रन्थ लिखकर बड़ा नाम कमा सकते हो। तीसरे ने सलाह दी - तुम अपनी योजना बनाने की क्षमता का उपयोग यदि व्यापार में करो, तो बहुत पैसा कमा सकते हो। एक प्रौढ़ सज्जन बोले - मेरा परिचय अनेक परिवारों से है, तुम कहो तो किसी धनवान परिवार की सुंदर लड़की से तुम्हारा विवाह करा दूँ। पर ये चारों बड़े निराश हुए, जब उस युवक ने कहा कि वह संन्यास लेकर समाजसेवा में अपना जीवन लगायेगा। सब लोग उसे समझाने लगे। युवक ने बताया मानव जीवन का उद्देश्य केवल खाना, पीना, कमाना, संतान उत्पन्न करना और मर जाना ही नहीं है। ईश्वर ने हमें केवल इस कार्य के लिए ही धरती पर नहीं भेजा। जीवन का उद्देश्य बहुत व्यापक है। यही स्थिति संघ की है। संघ की शक्ति एवं विशालता को देखकर लोग अपनी क्षुद्र बुध्दि के अनुसार तरह-तरह के सुझाव देते हैं। वे चेतावनी भी देते हैं कि यदि संघ ने इस कार्य में शक्ति नहीं लगायी, तो वह निष्क्रिय होकर नष्ट हो जाएगा; पर संघ कभी विचलित नहीं हुआ। क्योंकि हमारा लक्ष्य बहुत बड़ा है। जिन्होंने स्वयं को दीवारों में बंद कर रखा है, वे संघ का महत्त्व नहीं समझ सकते।
हमारे प्रभाव का आधार
वामन भगवान की कहानी हमारे धर्मग्रन्थों में आती है। उनके पास न सेना थी न सत्ता, न धन और न बल। उनका आकार तो बहुत ही छोटा था। फिर भी उन्होंने धरती, आकाश और पाताल अर्थात तीनों लोकों पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया था। ऐसा कैसे हो गया ? इसका कारण यह था कि उनके पास त्याग, तपस्या, सेवा और विश्व-कल्याण की कामना, यह चार महाव्रत थे। इनके बल पर ही उन्होंने राजा बलि को पराभूत किया। संघ के बारे में भी लोग ऐसा ही बोलते हैं कि राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वाले जनसंघ पर संघ का बहुत प्रभाव है। ऐसे लोगों को श्री गुरुजी कहते थे कि केवल जनसंघ ही क्यों, कांग्रेस, कम्युनिस्ट, मुस्लिम लीग आदि राजनीतिक दलों के साथ-साथ सम्पूर्ण विश्व पर भविष्य में संघ का प्रभाव पड़ने वाला है। क्योंकि हमारे पास भी शील, चरित्र, सेवाभाव और ध्येयनिष्ठा जैसे महाव्रत हैं।
कथनी और करनी में समानता
किसी भी सामाजिक काम में कार्यकर्ता की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण होती है। यदि उसकी कथनी और करनी एक नहीं होगी, तो कोई उस पर विश्वास नहीं करेगा और उसे कभी सफलता भी नहीं मिलेगी। इस बारे में श्री गुरुजी एक कहानी सुनाते थे। एक बच्चे को गुड़ खाने की बहुत आदत थी। इस कारण बार-बार वह बीमार हो जाता था। ऐसी ही बीमारी के समय उसके पिता ने एक चिकित्सक को बुलाया। चिकित्सक ने उसे देखकर एक सप्ताह की दवा तो दी; पर गुड़ खाने को मना नहीं किया। अगली बार उन्होंने फिर एक सप्ताह की दवा दी; पर गुड़ खाने को अब भी मना नहीं किया। तीसरी बार उन्होंने दवा देते समय गुड़ की हानियाँ बतायीं। यह सुनकर बालक ने गुड़
खाना बहुत कम कर दिया। बालक के पिता ने कहा - यदि यह बात आप पहली बार में ही कह देते, तो आपका क्या बिगड़ जाता ? चिकित्सक ने कहा - असल में मैं स्वयं भी बहुत अधिक गुड़ खाता था। इसलिए मेरा कुछ कहने का साहस नहीं हुआ। पर अब मैंने गुड़ खाना छोड़ दिया है। इसलिए आज यह बात कही है। स्पष्ट है कि जो काम हम स्वयं नहीं करते, उसे करने के लिए दूसरों को किस मुँह से कह सकते हैं ? अच्छा कार्यकर्ता वही है, जिसकी कथनी और करनी एक समान हो।
प्रेम सदा विजयी होता है
संघ की वृध्दि में स्वयंसेवकों के आपसी प्रेम-व्यवहार का बहुत योगदान है। जो भी व्यक्ति एक बार हमारे सम्पर्क में आ जाता है, वह सदा के लिए अपना हो जाता है। 1957 की बात है, नागपुर में हो रहे तृतीय वर्ष के वर्ग में एक स्वयंसेवक बहुत बीमार हो गया। उसे चिकित्सालय में भर्ती कराया तथा अच्छी से अच्छी दवा दी गयी; पर उसकी हालत बिगड़ती गयी। यह देखकर उसके घर वालों को बुलवाया गया। वहाँ व्यवस्था में लगे कार्यकर्ताओं ने उसकी रात-दिन चिन्ता की। इतने पर भी वह बच नहीं सका। जहाँ से वह आया था, वहाँ संघ-विरोधी लोग भी बड़ी संख्या में थे। उन्होंने यह अफवाह फैला दी कि संघ वालों ने इस युवक को जहर देकर मारा है। इससे गाँव वालों के मन में संघ के प्रति दुर्भावना उत्पन्न हो गयी। पर जब उसके परिवारजन गाँव में पहुँचे, तो उन्होंने बताया कि संघ वालों ने उनकी तथा उनके पुत्र की कितनी चिन्ता की थी। कार्यकर्ता रात-रात भर उसके पास बैठे रहते थे; पर यह प्रभु की इच्छा थी कि हमारा बेटा बच नहीं सका। यह सुनकर गाँव वालों की ऑंखें खुल गयीं और संघ-विरोधी लोग वहाँ से भागते नजर आये। वस्तुत: ऐसा प्रेमपूर्ण व्यवहार ही संघ की वृध्दि का आधार है।