श्रीगुरुजी ने इस सामाजिक संरचना की उपादेयता को स्पष्ट करने के लिए ऐतिहासिक सच्चाई को समाज के सम्मुख रखा और यह घोषणा की कि ''संसार के लोगों ने जो प्रयोग किए हैं, वे भी धीरे-धीरे व्यक्ति-स्वातंत्र्य सामूहिकीकरण के सामंजस्य की अनिवार्यता अनुभव करने लगे हैं। अतः अखिल मानव समाज को इस संरचना का पालन करना होगा। वैज्ञानिक आधार पर इससे उत्कृष्ट सामंजस्य की व्यवस्था और कोई नहीं हो सकती। अपने राष्ट्र के मंत्रद्रष्टा मनीषियों ने इसी संरचना की व्यवस्था और व्याख्या की थी। इस संरचना में ऊँच-नीच, भेदभाव अथवा पृथकता के लिए कहीं भी स्थान नहीं था। फिर भी यह पृथकता की भावना कैसे आ गई, यह आश्चर्य की बात है। ऐसा प्रतीत होता है कि उस संरचना के आधारभूत जीवन-सिध्दान्तों के विस्मरण के कारण उसमें घोर विकृति उत्पन्न हुई है। उसे हमें दूर करना होगा।''