शाखा पर नियम से, समय पर और उचित वेश में आना चाहिए। वहाँ होने वाले कार्यक्रमों में पूर्ण मनोयोग से भाग लेना चाहिए....आदि बातों पर श्री गुरुजी का बहुत आग्रह रहता था। कुछ लोग कहते थे कि इन छोटी-छोटी बातों का पालन किया या नहीं, इससे क्या फर्क पड़ता है ? ऐसे लोगों को श्री गुरुजी यह कथा सुनाते थे। पुराने समय में घोड़ों पर सवार होकर आमने-सामने की लड़ाई होती थी। एक बार दो राज्यों में युध्द हो रहा था। दोनों की सेनाएँ शक्तिशाली थीं, अत: कई दिन बीतने पर भी निर्णय नहीं हो पाया। एक दिन एक राज्य ने शत्रु सेना पर दो ओर से एक साथ आक्रमण करने का निर्णय लिया। दूसरी ओर से जिस दल को आक्रमण करना था, उसके प्रमुख को सूचना देने के लिए एक घुड़सवार सैनिक को नियुक्त किया गया। चलते समय उसने देखा कि उसके घोड़े के एक पैर की नाल की एक कील निकल गयी है। उसने इस ओर ध्यान नहीं दिया और चल दिया। उसने अभी आधा रास्ता ही पार किया था कि दो कीलें और ढीली होने से वह नाल ही निकल गयी और घोड़ा गिर पड़ा। घोड़े के गिरते ही वह सैनिक भी लुढ़ककर बेहोश हो गया। जब उसे होश आया, तो उसने देखा कि घोड़ा मर चुका है। अब सैनिक ने पैदल ही भागना शुरू किया; पर वह निर्धारित समय तक
सूचना नहीं पहुँचा सका। इस कारण दोनों ओर से एक साथ आक्रमण करने की योजना विफल हो गयी और वह राज्य हार गया। जाँच होने पर पता लगा कि पराजय का कारण एक कील थी। यदि वह घुड़सवार लापरवाही न करते हुए नाल में नयी कील ठुकवा लेता, तो पराजय न होती। स्पष्ट है कि छोटी मानी जाने वाली बातों का भी बहुत अधिक महत्त्व होता है। अत: कभी इनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
जोड़तोड़ से राष्ट्र नहीं बनता
राष्ट्र का अर्थ केवल भूमि का टुकड़ा और उस पर यहाँ-वहाँ से आकर रहने वाले कुछ लोगों का समूह मात्र नहीं है। इस संबंध में श्री गुरुजी द्वारा सुनाया गया यह रोचक प्रसंग उल्लेखनीय है। एक बार प्राणिविज्ञान के छात्रों को मजाक सूझा। उन्होंने किसी कीड़े का मुँह, किसी का पेट, किसी का पैर और किसी के पंख आदि को जोड़कर एक कीड़े जैसा आकार दे दिया। फिर उसे प्रयोगशाला की मेज पर रख दिया। कुछ देर बाद जब उनके अध्यापक आये, तो छात्रों ने कहा कि यह अजीब सा कीड़ा उन्होंने पकड़ा है। कृपया इसका नाम बताकर इस वर्ग की विशेषताएँ बतायें। अध्यापक छात्रों का मजाक समझ गये। वे बोले - यह कीड़ा या कीड़ी नहीं, धोखाधड़ी है। ऐसे ही 'कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा; भानुमती ने कुनबा जोड़ा' जैसी जोड़तोड़ से राष्ट्र नहीं बनते। राष्ट्र के लिए वहाँ के निवासियों का एक इतिहास, एक परम्परा और उस भूमि के प्रति माता जैसा प्रेमभाव होना भी आवश्यक है।
सबल शरीर आवश्यक है
हमें इस शरीर से ही सब कार्य करने हैं, इसलिए यह खूब बलवान होना चाहिए। इस संदर्भ में श्री गुरुजी यह घटना सुनाते थे। एक बार स्वामी विवेकानंद रेल से कहीं जा रहे थे। उनके एक भक्त ने उन्हें प्रथम श्रेणी का टिकट खरीदकर दिया था। उन दिनों प्राय: प्रथम श्रेणी में अंग्रेज या अंग्रेजों के चाटुकार सेठ आदि ही सफर करते थे। उस डिब्बे में दो अंग्रेज भी थे। उन अंग्रेजों ने जब भगवा कपड़े पहने एक संन्यासी को देखा, तो अंग्रेजी में उनके बारे में आपस में गन्दी-गन्दी बातें करने लगे। स्वामी जी को अच्छी अंग्रेजी आती थी। वे सब समझ रहे थे; पर उन्होंने चुप रहना ही उचित समझा। कुछ देर बाद जब एक स्टेशन पर गाड़ी रुकी, तो स्वामी जी ने पास से गुजर रहे स्टेशन मास्टर से अंग्रेजी में बात करते हुए अपने लिए पानी मँगवाया। यह देखकर वे अंग्रेज हैरान रह गये। जब गाड़ी चली, तो वे स्वामी जी से बात करने लगे।
- आपको अंग्रेजी आती है ?
- हाँ, कुछ-कुछ आती है।
- तब तो हम जो बोल रहे थे, वह आप समझ रहे होंगे ?
- हाँ, अच्छी तरह समझ रहा था।
- फिर आपने उसका विरोधा क्यों नहीं किया ?
स्वामी जी ने हँसकर जवाब दिया - मेरा मूर्खों से मिलने का यह पहला अवसर नहीं है। यह सुनकर वे आगबबूला होकर झगड़ने लगे। स्वामी जी ने अपने कुर्ते की बाँहें चढ़ायीं और उनकी गर्दन पकड़कर बोले - चुपचाप बैठ जाओ, अन्यथा गाड़ी से बाहर फेंक दूँगा। तुम दोनों के लिए मैं अकेला ही काफी हूँ। स्वामी जी की मजबूत भुजाएँ देखकर दोनों का गुस्सा ठंडा हो गया। अगला स्टेशन आने पर वे उतरकर दूसरे डिब्बे में जा बैठे।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
हिन्दुओं की दुर्दशा का एक बड़ा कारण यह है कि अधिकांश लोग दूसरों को उपदेश तो देते हैं; पर स्वयं कुछ करना नहीं चाहते। ऐसे लोगों के पास देश की हर समस्या का समाधान मिलेगा; पर वे चाहते हैं कि अन्य लोग यह कार्य करें। इस बारे में पूज्य डा. हेडगेवार के जीवन का एक मजेदार प्रसंग श्री गुरुजी सुनाते थे। नागपुर के एक सेठ के घर पर कोई कार्यक्रम था। नगर के अनेक प्रतिष्ठित लोग वहाँ आये थे। सेठ जी ने वहाँ की प्रथा के अनुसार पानदान आगे बढ़ाया। उसमें पान, सुपारी, इलायची, लौंग आदि तो थे; पर चूना नहीं था। चूने के बिना लोग पान नहीं ले सकते थे। सेठ जी ने मुनीम जी को देखकर आवाज लगायी - जरा चूना लाइये। मुनीम जी ने एक नौकर को कहा - जरा चूना लाओ। उस नौकर ने दूसरे नौकर को कह दिया। इस प्रकार काफी देर तक 'चूना लाओ, चूना लाओ' की पुकार होती रही; पर चूना नहीं आया। यही स्थिति भारत देश की है; पर संघ ने इस व्यवस्था को बदला है। स्वयंसेवक पहले स्वयं काम करता है, फिर वह अन्यों को उसे करने को कहता है।