रामकृष्ण मिशन सर्व-समावेशक धर्म का प्रचारक
श्रीगुरुजी (हिंदी)   26-Oct-2017
डॉ. सैफुद्दीन जिलानी के साथ वार्ता में (खण्ड 9, पृष्ठ 192) श्री गुरुजी कहते हैं कि धर्म के अधिष्ठान के बिना कुछ भी हासिल नहीं होगा। धार्मिकता होनी ही चाहिए। 'रामकृष्ण मिशन' को ही लें। यह आश्रम व्यापक और सर्वसमावेशक धर्म-प्रचार का कार्य कर रहा है। अत: आज तो इसी दृष्टिकोण और वृत्ति की आवश्यकता है कि ईश्वरोपासना-विषयक विभिन्न श्रध्दाओं को नष्ट न कर उनका आदर करें, उन्हें टिकाए रखें और उन्हें वृध्दिंगत होने दें।
 विभिन्न व्यक्तियों को लिखे गये पत्रों में भी श्री गुरुजी उर्पयुक्त दृष्टिकोण को ही विशद करते हैं :-
 
श्री पी. शंकर नारायणन, चेन्नई, 30 सितम्बर 1953 जिन्हें अपने प्राचीन राष्ट्र-जीवन तथा उसके शाश्वत जीवन-मूल्यों का परिपूर्ण ज्ञान है, जिनका अपने संस्कृति के आदर्शों के अनुसार आचरण है तथा जो समाज में सांस्कृतिक मूल्यों का सही प्रसार करना चाहते हैं, उनकी हमारे कार्य के लिए अत्यन्त आवश्यकता है। आप भारतीय दर्शन के विद्वान पंडित हैं तथा रामकृष्ण मिशन से, जो भारतीय दर्शन का प्रत्यक्ष आचरण कर रहा है, सम्बंधित है। आप इस कार्य में बहुमूल्य योगदान दे सकते हैं।.
 
कालड़ी (केरल) के श्री भास्कर मेनन को 16 अगस्त 1956 को प्रेषित अंग्रेजी पत्र में श्री गुरुजी के विचारों का संक्षेप इस प्रकार है :-
श्रध्देय स्वामी आगमानन्द जी के साहित्य-संकलन एवं प्रकाशन की आपकी कल्पना अतीव सुखद है। श्री स्वामी जी के जीवन में अपने समाज, धर्म एवं संस्कृति की निरपेक्ष सेवा सार्थक हुई है। भारत के बाहर संप्रदायों द्वारा धार्मिकता का स्वाँग रचकर राजकीय स्वार्थ सिध्द करने-हेतु की जा रही कार्यवाही के प्रति स्वामीजी की उग्र भावना सर्वपरिचित है। इसीलिए भक्ति, ज्ञान एवं कठोर कर्मयोगी जीवन की अनुभूति से अभिव्यक्त उनके विचार भावी पीढ़ी को निरन्तर स्फूर्ति प्रदान करेंगे। ...भगवान् रामकृष्ण आपको यशस्वी करें।
 
दीनदयाल जी को अमेरिका में मिशन-सम्पर्क की सलाह भारतीय जनसंघ के तत्कालीन अखिल भारतीय महामंत्री पं. दीनदयाल उपाध्याय के अमेरिका यात्रा पर जाने के अवसर पर 16 सितम्बर 1963 को भेजे पत्र में श्री गुरुजी सलाह देते हैं :- ..न्यूयार्क के रामकृष्ण मिशन में स्वामी निखिलानन्द जी हैं; किन्तु मेरा उनसे परिचय नहीं है। परन्तु भारतीय के नाते वहाँ आपका स्वागत होगा, ऐसा मुझे विश्वास होने से आप बिना परिचय पत्र के भी स्वयं होकर वहाँ पहुँचे तो ठीक होगा। उनका कार्य किस प्रकार चल रहा है, कितना प्रभाव निर्माण कर रहा है, इसका ज्ञान हो सकेगा।
 
रामकृष्ण परमहंस का दिव्य जीवन सामने रखें मौरिसपेठ (नागपुर) के स्वामी चिरंतनानंद जी को 16 सितम्बर 1956 के पत्र में श्री गुरुजी द्वारा व्यक्त विचारों का संक्षिप्त रूप इस प्रकार है :- रामकृष्ण आश्रम से आपका भक्तियुक्त हृदय से निकटवर्ती सम्बन्ध है। आपने परम श्रध्देय (शारदा) माँ का एवं स्वामी विवेकानन्द जी का चरित्र-लेखन किया है इसीलिए आपने भगवान् रामकृष्ण के लीला-चरित्र के अलौकिक एवं दिव्य पहलुओं की अभिव्यक्ति सफलतापूर्वक की होगी। ..आन्ध्र प्रदेश के सामाजिक जीवन के सब स्तरों के लोगों तक भगवान् रामकृष्ण के जीवन की दिव्य प्रेरणा इस पुस्तक के द्वारा पहुँचेगी ऐसी आशा है। आप भगवान् रामकृष्ण के कृपापात्र हैं, अत: उनका स्मरण कर मैं आपके चरण स्पर्श करता हूँ।
 
आधुनिक भारत-निर्माण के प्रथम प्रेरक महर्षि दयानंद
10 अक्टूबर, 1954 को श्री भारतेन्द्र नाथ को पत्र भेजते हुए श्री गुरुजी महर्षि दयानंद के प्रति अपनी श्रध्दा प्रकट करते हुए कहते हैं :- महर्षि दयानंद जी की स्मृति में आप अतिरिक्तांक प्रकाशित कर रहे हैं वह उचित ही है, क्योंकि आधुनिक भारत के निर्माण में सर्वप्रथम प्रेरक के नाते उनका स्थान अनन्य है। अपनेपन का उद्दीप्त स्वाभिमान लेकर उन्होंने सोए समाज को जागृत किया। अनुकरण की दास-वृत्ति पर प्रहार कर स्वतंत्र प्रतिभायुक्त राष्ट्रीय अस्मिता का संदेश दिया। जीवन का कोई क्षेत्र उनके तेजस्वी विचारों से अछूता नहीं रहा। उनके उपकारों से उऋण होने के लिए उनके निर्दिष्ट स्वाभिमान को लेकर जाति-जागरण का कर्तव्य पूरा करने हेतु सचेष्ट रहना-यही उचित होगा। केवल स्मरण-समारोह आदि बाह्यांगों से क्या होगा? अत: उनकी पवित्र स्मृति को अंत:करण में धारण करने वाले सब व्यक्तियों को आत्म निरीक्षण कर उनके उपदेश एवं जीवन-चरित्र में प्रकट गुणों को सब कितना चरितार्थ कर रहे हैं, इसकी जाँच-पड़ताल कर योग्य जीवन-निर्माण की ओर सतर्कता से ध्यान देना आवश्यक है। आशा है, महर्षि की प्रेरणा फिर से जाग उठेगी और जीवन में उत्तम तेजस्विता प्रकट होगी।
 
श्री के. ई. रामस्वामी, चेन्नई, दि. 15-11-1967 को लिखे अंग्रेजी पत्र का संक्षेप :- विषय अत्यन्त श्रेष्ठ है। मैं इतना ही कहूँगा कि महर्षि दयानन्द की पवित्र स्मृति में मैं नतमस्तक होता हूँ। उन्होंने बौध्दिक प्रबोधन, तर्कवाद तथा हमारे धर्म व राष्ट्र के मूल स्रोत, वेदों के प्रति श्रध्दा के नवयुग का सूत्रपात किया तथा लागों में अपने पौरुष व देवत्व पर आग्रह रखने हेतु जागृति भर दी।
 
'तिरुक्कुरल' का हिन्दी अनुवाद प्रशंसनीय
हिन्दी प्राध्यापक श्री मु. गो. वेंकट कृष्णन (करोकुडी) को 21 मार्च 1968 के पत्र में अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुए श्री गुरुजी लिखते हैं। परम श्रेष्ठ सद्ग्रंथ 'तिरुक्कुरल' (संत तिरुवल्लुवर-रचित) का स्वर्गीय वि. वि. एस. अय्यर कृत अंग्रेजी अनुवाद बहुत वर्ष पूर्व पढ़ा था। तभी से अपने देशवासियों से इस महान ग्रंथ का अध्ययन करने का आह्वान मैं समय-समय पर करता आ रहा हूँ। अब मेरे पास आपने किया हुआ दोहा-रूप हिन्दी अनुवाद कल आया है। कल ही रात्रि में उसका बहुतांश मैंने पढ़ लिया। अति मधुर उतरा है। यह अनुवाद है, यह बात यदि किसी ने नहीं कही, तो इसको मूल ग्रंथ माना जा सकेगा, इतना सहज, सरल, सुंदर यह बना है। हिन्दी पढ़ सकने वाले अपने भाइयों के ऊपर आपने महान उपकार किया है। शैक्षणिक संस्थाओं को बिना मूल्य एक-एक प्रति भेंट करने के निमित्त एक सहस्त्र (पुस्तकें) वितरित करने हेतु श्रध्देय वि. वि. एस. अय्यर के सुपुत्र डॉ. कृष्णमूर्ति जी के नाम पत्र लिखकर (मैंने) उनको मेरे धन्यवाद अर्पित किये हैं। आपका हार्दिक अभिनंदन करता हुआ, अपने देश पर आपने किये महान उपकार के लिए आपको अंत:करण-पूर्वक शतश: धन्यवाद देता हूँ।
 
वारकरी संप्रदाय
वारकरी सम्प्रदाय के विशेष अधिकारी पुरुष पू. श्री धुंडा महाराज देगलुरकर के 61 वें जन्मदिवस पर पंढरपुर में आयोजित समारोह में प्रकट उद्गार :-
बहुत पुरानी बात है। वारकरियों के सम्बन्ध में मेरे कुछ पूर्वाग्रह थे। ..यह झाँझ -मृदंग बजाने वाला साधारण व्यक्ति है। इससे अधिक कोई अर्थ नहीं है। मुख से भिन्न-भिन्न अभंग (छंद) वह अवश्य कहता है, परन्तु उसका वास्तविक अर्थ वह जानता नहीं। ..परन्तु मैंने (नागपुर में धुंडा महाराज का) जो प्रवचन सुना, उससे मुझे स्पष्ट अनुभव हुआ कि मेरा यह भ्रम निरर्थक है। धुंडा महाराज के उस प्रवचन में भक्ति तो थी ही, उसके अतिरिक्त अपने जीवन के भिन्न-भिन्न राजनैतिक एवं सामाजिक प्रश्नों का भी विवेचन किया गया था। 'ज्ञानेश्वरी' साहित्य की दृष्टि से मराठी भाषा का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। इसी कारण अपने सारे लोग उसका गुणगान करते हैं। श्रध्देय धुंडा महाराज भी अपनी विद्वतापूर्ण आकर्षक शैली से सतत् प्रवचन करते हुए उसी ग्रंथ को समझाते हैं। साहित्य की दृष्टि से तो वह ग्रंथ उत्तम है ही, परन्तु उसमें प्रतिपाद्य विषय के बारे में जानने की मुझे लालसा हुई। इस हेतु महान पुरुषों के पास बैठकर जो कुछ अध्ययन कर समझ सका उससे यह ध्यान में आया कि आजतक वारकरियों पर 'बुवाबाजी' अर्थात ढोंगीपन का जो आरोप करते हैं, वह निराधार है। वस्तुत: यह संप्रदाय अद्वैत सिध्दांत पर अधिष्ठित तथा अति श्रेष्ठ भक्ति द्वारा व्यक्ति को परम श्रेष्ठ सुख प्राप्त करा देने वाला है, यह मेरी अनुभूति है और उसमें अभी तक किसी प्रकार की भूल तो प्रतीत नहीं हुई, अपितु वह अधिकाधिक दृढ़ ही होती जा रही है। 
 
राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज को श्रध्दांजलि लेख (11 अक्टूबर 1961) के माध्यम से श्री गुरुजीवारकरी संप्रदाय के विषय में कुछ और भी विचार प्रकट करते हैं :-
पंथ विशेष का संकुचित दृष्टिकोण त्यागकर सर्वव्यापी धर्म का पुनरुत्थान उन्हें अभीष्ट था। इसलिए असहिष्णु पंथ की ओर दुर्लक्ष्य कर, सब पंथों को व्याप्त कर सकने वाला आधारभूत विशुध्द अद्वैत और ज्ञानयुक्त परम भक्ति की शिक्षा देने वाले सच्चे हिन्दु धर्म को जागृत करने के लिए उन्होंने अपना सम्पूर्ण शारीरिक सामर्थ्य तथा आध्यात्मिक तेजस्विता समर्पित की। जिन-जिन स्थानों पर इस धर्म का बीज उन्होंने देखा, वहाँ-वहाँ वे पहुँचे। लागों को जागृत करने के लिए, उन्हें उत्तम ऐहिक जीवन तथा भगवद्भक्ति में सामंजस्य स्थापित कर आदर्श जीवन व्यतीत करके शिक्षा देने के लिए अत्यन्त परिश्रम किया। ..जन-मानस पर जिसकी पकड़ है, उस वारकरी संप्रदाय को संगठित करने के कार्य में उन्होंने पहल की। इसी समय विश्व के सभी हिन्दुओं में धर्म-प्रवणता तथा भारत-भक्ति की जागृति का लक्ष्य सामने रखकर विश्व हिन्दू परिषद स्थापित करने का संकल्प अनेक मनीषियों के मन में उदित हुआ। पंथोपपंथों के प्रमुखों को आमंत्रित कर परिषद की रूपरेखा तथा कार्य की दिशा का निश्चय हुआ। ..यह अनुभव कर कि वे स्वयं जो कार्य कर रहे थे, वह संपादन करने का एक अन्य मार्ग परिषद के रूप में उद्धाटित हो रहा है, उन्होंने प्रारंभ से ही इसकी ओर अपना पूर्ण ध्यान दिया। प्रथम बैठक में उपस्थित होकर इतना सुस्पष्ट तथा प्रभावी मार्गदर्शन किया कि परिषद का कार्य करने वालों को कोई भी संदेह या बाधा का अनुभव नहीं हुआ।