इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रीगुरुजी ने कहा था कि समाज एक जीवंत इकाई है। मानव जीवसृष्टि का सर्वाधिक विकसित रूप है। उसकी शरीर-रचना जीव के विकास का सर्वोत्तम रूप है। अतः जीवंत समाज की संरचना भी उसकी प्रकृति अथवा निसर्ग के अनुरूप ही होगी। मनुष्य के विभिन्न अंग समान न होकर भी परस्परानुकूल होते हैं। एक-दूसरे से भिन्नता रखते हुए भी व्यक्तियों में समानता रहती है। अतः समाज संरचना ऐसी होनी चाहिए कि जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास तो हो, किन्तु वह विकास व्यक्ति के सामाजिक जीवन का हित-विरोधी न बन कर उसका पूरक बने।
इस हेतु समान गुण-धर्म अथवा विशेषता रखने वाले व्यक्तियों के समूह बनाकर समूह के रूप में उन्हें स्वतन्त्रता दी जाए जिससे वे समाज के हित-साधन, प्रगति और विकास में अपना योगदान कर सकें। इसके साथ ही समाज में एक ऐसा वर्ग भी होना चाहिए जो सम्पूर्ण समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करने की पात्रता उत्पन्न कर विभिन्न समूहों के आपसी संबंधों को माधुर्यपूर्ण बनाए रखने में सहायक हो। यह वर्ग मानव शरीर के विभिन्न अवयवों के समान समाजरूपी जीवमान इकाई के विभिन्न अंगों की आवश्यकता समझता हो, परन्तु स्वयं की अपनी कोई आवश्यकता न रखता हो। ऐसा वर्ग ही संपूर्ण समाज को एक सूत्र में पिरोकर उन्हें प्रगति पथ पर अग्रसर कर सकता है किन्तु वह राज्याश्रित अथवा राज्य की कृपा पर अवलम्बित नहीं होगा।