7 वीं-8 वीं सदी में जब बर्बर अरब और तुर्कों ने फारस पर आक्रमण किया, उस समय कुछ पारसी अपनी मातृभूमि को छोड़कर तथा अपनी पवित्र अग्नि एवं धर्म-पुस्तक को लेकर जल-पथ से चल पड़े और सूरत में आकर उतरे। राजा यादव राणा ने उनका खुले हृदय से स्वागत किया और द्वारिकापीठ के शंकराचार्य से पूछा कि उन्हें किस भाँति ग्रहण किया जाए। उनसे कह दिया गया कि वे हमारी राष्ट्रीय निष्ठा की वस्तु गोमाता का सम्मान करते हुए गोमांस भक्षण त्याग दें और यहाँ शांतिपूर्वक रहें। इन जरथुस्त्र के अनुयायियों ने आज तक अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया है। वे राष्ट्रीय जीवन की मुख्यधारा में पूर्ण रूप से विलीन हो गये है।
इस विशाल हिन्दू जनसंख्या के बीच एक मुठ्ठी भर संख्या में वे लोग आज भी अपने धार्मिक विश्वासों का पूर्ण स्वतंत्रता के साथ पालन करते हुए विद्यमान हैं। उन्हें किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं हैं। क्या यह ज्वलंत उदाहरण ही यह सिध्द करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि धर्म-परिवर्तन को बलात् लादने की बात हिन्दू समाज के मन में आ ही नहीं सकती।
(पांचजन्य, 6 अप्रेल 1970)
पारसी हिन्दू ही हैं
विश्व हिन्दू परिषद के तत्कालीन महामंत्री श्री दादा साहब आपटे को 25 अगस्त 1967 को मराठी में लिखित पत्र में श्री गुरुजी पारसी समाज के संबंध में अपना दृष्टिकोण प्रकट करते हुए कहते हैं :-
..श्री दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, मैडम कामा आदि का अनेक बार गौरवपूर्ण उल्लेख कर मैंने ऐसा प्रकट रूप से कहा था कि पारसी बंधु राष्ट्रजीवन में राष्ट्र की आशा-आकाँक्षाओं से एकरूप हुए हैं, इसलिए उनका पृथकत्व से विचार करने की अब आवश्यकता नहीं है। वे वास्तव में हिन्दू ही हैं और उनकी राष्ट्रीय वृत्ति के कारण उन्हें 'अधिक प्रमाण में हिन्दू' कहना ही उचित है। उसी दृष्टि से नागपुर के बाल स्वयंसेवकों के शीतकालीन शिविर के उद्धाटन के लिए अध्यक्ष के नाते मेरे निकट के मित्र श्री जाल पी गिमी को आमंत्रित किया गया था। उन्होंने अध्यक्ष पद विभूषित भी किया था। आपको लगे तो उन (पारसी सहयोगियों) की जानकारी के लिए उन्हें यह सूचित करें एवं यह नम्रतापूर्वक बताएँ कि वे ऐसी कोई गलत फहमी न पालें कि हम उन्हें पृथक मानते हैं।
श्री ए. एच. डॉक्टर, औरंगाबाद
(श्री नीरद सी चौधरी द्वारा ‘The Continent of Circe’ नामक ग्रन्थ में पारसियों के प्रति जो अनुदार अभिप्राय प्रकट किया गया है, उसकी ओर पत्र-प्रेषक श्री डॉक्टर द्वारा श्री गुरुजी को अवगत कराया गया। उत्तर में श्री गुरुजी लिखते हैं :-)
इस विषय पर हमारे और आपके विचार समान हैं। वस्तुत: मैं सोचता रहा हूँ कि पारसियों की मूल रूप से वही धार्मिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि है जैसे शेष हिन्दू जाति की। और ..भारत में कई शताब्दियों से बस जाने के बाद उन्होंने दिन-प्रतिदिन के जीवन के अनेक पक्षों में हिन्दू समाज के साथ अपना मिश्रण कर लिया है। इस रूप में मेरी प्रबल इच्छा होगी कि हम सभी अपनी विविध विशिष्टताओं को समाप्त किए बिना एक ही नाम 'हिन्दू' के अंतर्गत रखे जाएँ। मैं आपसे सहमत हूँ कि पारसियों को इस भूमि में विदेशी कहना अथवा यह कहना कि हिन्दुओं और पारसियों में एक दूसरे के प्रति संदेह व्याप्त है, न केवल गलत है, अपितु अन्यायपूर्ण भी है। श्री नीरद चौधरी का अन्यायपूर्ण वक्तव्य कितना झूठ है, यह हम सब देश में अपेक्षित वातावरण निर्माण कर ही सिध्द कर सकते हैं।