विचार नवनीत, में 'मातृभूमि के पुत्र :- एकं सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति' शीर्षक के अन्तर्गत भारत राष्ट्र के श्रेष्ठ सर्वसमावेशक चिन्तन का वर्णन करते हुए श्री गुरुजी कहते हैं: 'हमारे लचीले धर्म के स्वरूप की जो प्रथम नैसर्गिक विशेषता बाहरी व्यक्ति की दृष्टि में आती है, वह है पंथ और उपपंथों की आश्चर्यजनक विविधता यथा - शैव, वैष्णव, शाक्त, वैदिक, बौध्द, जैन, सिख, लिंगायत, आर्य समाज आदि। इन सभी उपासनाओं के महान आचार्यों एवं प्रवर्तकों ने उपासना के विविध रूपों की स्थापना, हमारे लोक-मस्तिष्क की विविध योग्यताओं की अनुकूलता का ध्यान रखकर ही की है। किन्तु अंतिम निष्कर्ष के रूप में सभी ने उस एक चरम सत्य को लक्ष्य के रूप में प्राप्त करने के लिए कहा है, जिसे ब्रह्म, आत्मा, विष्णु, शिव, ईश्वर अथवा महाशून्य तक के विविध नामों से पुकारा जाता है।' श्री गुरुजी और स्पष्ट करते हैं :- 'व्यक्ति को उपासना - स्वातंत्र्य का यह अधिकार इसलिए प्राप्त था कि प्रत्येक के लिए अपनी विशिष्ट आध्यात्मिक प्रकृति के अनुरूप आध्यात्मिक भोजन चुनने का अधिकार हो, किन्तु उपासना-मार्ग की विविधताओं का अर्थ समाज का विभाजन नहीं था। एक ही धर्म के ये सभी अविभाज्य अंग समाज की धारणा करते थे। हमारे समाज के इन सभी अंगों में वही जीवन-दर्शन, वही लक्ष्य, वही बाह्य स्थूल पर आंतरिक आस्था का प्रभुत्व, वही पुनर्जन्म में विश्वास, वही ब्रह्मचर्य, सत्य आदि कतिपय गुणों की पूजा, वही पवित्र संस्कार व्याप्त थे। ......वे शुध्द अद्वैत के संस्थापक श्री शंकराचार्य ही थे, जिन्होंने पंचायतन पूजा का निर्देश किया। ईश्वर के साक्षात्कार-हेतु विभिन्न पंथों के स्वरैक्य का यह कितना भव्य उदाहरण है! पंथ-विभेद के कारण हमारे देश में भूतकाल में कभी भी रक्तपात अथवा अपवित्र स्पर्धा नहीं हुई। इस आंतरिक एकत्व की गंभीर धारा का 'शिव महिम्न स्तोत्र' में अत्यंत सुंदर चित्रण हुआ है' :-
त्रयी सांख्यं योग: पशुपतिमतं वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमद: पथ्यमिति च।
रुचानां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥7॥
(जिस प्रकार सभी जलों का गंतव्य समुद्र होता है, वैसे ही हे ब्रह्मा सभी मनुष्यों के तुम एकमात्र लक्ष्य हो। मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार तुम्हारी पूजा के लिए भिन्न-भिन्न मार्गों का अनुसरण करते हैं-चाहे वह रास्ता सीधा हो या टेढ़ा - क्योंकि वेद, सांख्य, योग, शैव और वैष्णव आदि विभिन्न पंथों के विश्वासों में वही मार्ग श्रेष्ठ या पूर्ण है)। टैक्सास विश्वविद्यालय, आस्टिन द्वारा 1963 में श्री शंकरराव तत्ववादी (वर्तमान प्रभारी, विश्व विभाग, रा. स्व. संघ) को हिन्दू धर्म पर बोलने के लिए आमंत्रित किये जाने पर श्री गुरुजी हिन्दुत्व का उपर्युक्त स्वरूप ही प्रतिपादित करने-हेतु 29.08.1963 को उन्हें लिखते हैं- अपने धर्म का व्यापक स्वरूप, अद्वैत के आधार पर उसका सर्व-संग्राहकत्व, अन्य सर्व मतों का यथायोग्य आदर ...... आदि श्रेष्ठत्व का व्यवस्थित दिग्दर्शन कराने की ओर ध्यान देना हितकारी होगा। इस सम्बन्ध में मुझे एक उत्तम उदाहरण स्मरण आता है। वर्तमान श्रृंगेरी मठ (जो श्रीमत् आद्य शंकराचार्य के मठों में प्रमुख माना जाता है) के आचार्य के गुरु श्रीमत् चन्द्रशेखर भारती स्वामी के पूर्ववर्ती पीठाधिपति के निकट एक अमरीकी सज्जन गये तथा स्वामी जी से उन्हें हिन्दू धर्म में दीक्षित करने की प्रार्थना की। श्रीमत् आचार्य ने उनसे पूछा कि ईसाई मत में क्या कमी है, उस मत की उपासना क्यों नहीं करते? अमरीकी सज्जन ने कहा कि उस उपासना से मन:शांति नहीं मिली। तब स्वामी जी ने उनसे पूछा, क्या तुमने प्रामाणिकता से मन:पूर्वक, पूर्ण श्रध्दा से उपासना की है? उसने कुछ समय सोचकर उत्तर दिया, 'नहीं।' तब स्वामी जी ने उसे श्रध्दायुक्त अंत:करण से यीशु पर विश्वास रखकर प्रामाणिकता से उस मतानुसार प्रभुभक्ति करने का सुझाव देकर कहा कि यदि पर्याप्त दिनों तक इस प्रकार करते रहने पर भी तुम्हारा मन अशान्त तथा असंतुष्ट ही रहा, तो सिध्द होगा कि तुम्हारी पूर्वजन्म प्राप्त प्रकृति के लिए यह उपासना-पध्दति उपयुक्त नहीं है। वैसी स्थिति में मैं आश्वासन देता हूँ कि तुम्हारे पुन: आने पर मार्ग सुझाया जाएगा। इस उदाहरण का अर्थ स्पष्ट है कि जन्म से प्राप्त अपनी मूल निष्ठा को दृढ़ करना ही अभीष्ट है ......अपने धर्म की यह व्यापक संग्राहक दृष्टि है। स्वामी विवेकानंद जी ने भी यही विचार अपनी ओजस्वी वाणी से उद्धोषित किये हैं।...एक अन्य प्रसंग में एक सूफी संत द्वारा सभी पंथों में एकता के उपाय के रूप में सबको मुसलमान बन जाने का सुझाव देने पर श्री गुरुजी ने कहा- इस सूफी व्यक्ति को यह पता नहीं है कि इस दुनिया में एक सर्वसमावेशक तत्वज्ञान है, उसे हिन्दू कहो या न कहो, वह जागतिक तत्वज्ञान है, मानवता का तत्वज्ञान है। कोई राम कहेगा, कोई कृष्ण, कोई अल्लाह। भगवान् अंतत: एक ही है, यह कहने वाला केवल हिन्दू धर्म ही है। अनेक पंथ-भेद के लोग होने पर भी, ये सभी मार्ग एक ही परमेश्वर की ओर ले जाने वाले हैं, यह उदारता की भावना हिन्दुत्व के बिना संभव नहीं है। विचार नवनीत में 'हमारा जागतिक लक्ष्य' शीर्षक के अंतर्गत श्री गुरुजी बताते हैं:- 'इतिहास का यह कथन है कि केवल इसी देश में अति प्राचीन काल से विचारकों और दार्शनिकों, ऋषियों और मनीषियों की पीढ़ी के पश्चात् पीढ़ी मानव-प्रकृति के रहस्यों का उद्धाटन करने के लिए उठती रही। उन्होंने आत्मजगत् में गहराई तक गोता लगाया तथा उस महान एकरूपता के सिध्दांत की अनुभूति के शास्त्र को आविष्कृत किया, उसे परिपूर्ण बनाया। एक सम्पूर्ण राष्ट्र की तपस्या और त्याग तथा सैकड़ों शताब्दियों का अनुभव, संसार की आध्यात्मिक तृषा को शांत करने के लिए इस ज्ञान के अक्षय स्रोत के रूप में यहाँ वर्तमान है। दूसरी ओर, भारत के बाहर संसार ने आत्मा के इस शास्त्र का अध्ययन नहीं किया। आज तक अपनी इंद्रियों से बाह्य संसार के अध्ययन के अभ्यस्त हो, वे बहिर्मुखी बने हुए हैं। इंद्रियाँ बहिर्मुखी होने के कारण आंतरिक प्रकृति के दृश्य की ओर जाने में असमर्थ हैं। इसीलिए पाश्चात्य जगत् के लोग आत्मजगत् के ज्ञान एवं अनुभव से शून्य बने रहे, चाहे स्थूल जगत् के रहस्यों का कितना ही उद्धाटन क्यों न कर लिया हो। ... हमारे पूर्वज जिन्होंने इंद्रियों से परे विश्व में प्रवेश किया, अंदर देख सके और उस भासमान आंतरिक शक्ति की झाँकी प्राप्त कर सके।' आचार्य विनोबा भावे ने श्री गुरुजी को श्रध्दांजलि देते हुए कहा था - 'वे हर चीज का राष्ट्रीय दृष्टिकोण से विचार करते थे। उनका अध्यात्म में अटूट विश्वास था और सभी धर्मों के लिए उनके हृदय में आदर का भाव था। उनमें संकीर्णता लेशमात्र भी नहीं थी, वे हमेशा उच्च राष्ट्रीय विचारों से कार्य करते थे। श्री गोलवलकर को अध्यात्म से गहरा प्रेम था। वे इस्लाम, मसीही आदि अन्य धर्मो को बड़े आदर की दृष्टि से देखते थे और यह अपेक्षा करते थे कि भारत में कोई अलग न रह जाए।'
मानवता पर प्रेम रखो
24 जनवरी, 1966 को प्रयाग में विश्व हिन्दू परिषद के प्रथम अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में श्री गुरुजी ने स्पष्ट किया था - 'कभी-कभी लोग कहते हैं जो भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय चलते हैं, उनका विनाश करने के लिए आप चले हैं क्या? स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में हम कह सकते हैं कि ऐसा हमारा कोई संकल्प नहीं है। हम किसी से यह नहीं कहते कि तुम ईसाई मत बनो या इस्लाम के अनुसार कुरान शरीफ का अध्ययन करना या पाँच बार नमाज पढ़ना ठीक नहीं। हम इतना ही कहते हैं कि जो कुछ करना है ईमानदारी से करो, चारित्र्यसम्पन्न बनकर और मानवता पर प्रेम रख कर करो। सदाचरण आदि सर्वश्रेष्ठ सद्गुण संसार के यच्चयावत् मानव जाति के लिए हैं। उनका परिपालन करते हुए चलो। उनके नाम पर अपने स्वार्थ को पूर्ण मत करो, या व्यभिचार मत करो और विनाश मत करो, यही अपना आग्रह है।'
एक भेंटवार्ता (खण्ड 9, पृष्ठ122) के दौरान श्री गुरुजी साफगोई से कहते हैं, 'हिन्दू लोग चर्च और मस्जिद को पूजा का स्थान मानते हैं, इसलिए वे उनका सम्मान करते हैं। मुस्लिम और ईसाइयों की सोच वैसी नहीं है। वे मूर्तिपूजा को पाप समझते हैं। मुसलमान तो मूर्तिभंजन करने में गौरव का अनुभव करते हैं। हमारे देश में अगणित भव्य मूर्तियाँ और उजड़े हुए मंदिर उनकी इस मनोवृत्ति के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। हिन्दुओं की पूजा पध्दति का उन्हें ज्ञान न होना कोई महत्त्व की बात नहीं है। यदि वे मन्दिरों में आते हैं और अपनी भाषा में अपनी पध्दति से घुटने टेककर प्रार्थना करते हैं, तो हमें कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु, शपथबध्द दुश्मनी करने की मनोवृत्ति से मन्दिरों में प्रवेश करना, उन्हें अपमानित और भ्रष्ट करने के समान ही है।'
न्यायप्रियता से विसंगति विचार नवनीत में 'दैवीय धारोहर-जागतिक लक्ष्य' विषय के अन्तर्गत श्री गुरुजी कहते हैं-प्राचीन वैदिक काल से लेकर आज तक हमारी यही उदारता व सर्वसमावेशी परम्परा रही है। हमारे सभी अध्यात्मिक आचार्यों ने धर्म के इसी सर्वव्यापी अद्वितीय स्वरूप को ग्रहण किया है। रामकृष्ण परमहंस ने कहा है-जितने दृष्टिकोण, उतने मार्ग (जेतो मतो, तेतो पथो)। व्यक्तियों की विविध वृत्तियों एवं रुचि के अनुसार अनेक पंथ और मत हो सकते हैं।
इनमें से अनेक पंथों एवं दर्शनों के निर्माण से एक अन्य लाभदायक उद्देश्य की भी सिध्दि हुई है। वे हमारे समाज की अखण्डता को बनाये रखने के लिए तथा उसकी रक्षा के लिए भी सहायक सिध्द हुए हैं। उदाहरण के लिए, सिख पंथ का उदय पंजाब में इस्लाम के प्रसार को रोकने के लिए हुआ। आगे चलकर समय की आवश्यकता को समझते हुए दशम् गुरु गोविंद सिंह ने अपने शिष्यों को सशस्त्र किया तथा उन्हें राष्ट्रीय योध्दाओं के एक सैन्यबल में परिवर्तित कर दिया। जब ईसाई धर्म-प्रचारक हमारे पश्चिमी समुद्र तट पर लोगों को अपने सम्प्रदाय में सम्मिलित करने के लिए अपने दयामय ईश्वर के नाम पर लोगों की अनुनय कर रहे थे, उस समय इस विदेशी विष को विफल करने के लिए हमारे धर्म की भक्ति के एक स्वरूप को लेकर श्री मधवाचार्य का उदय हुआ। स्वामी रामानुजाचार्य एवं संत बसवेश्वर के प्रयत्न भी समाज में प्रवेश कर रहे ऊँच-नीच के भेद को मिटाकर ईश्वर-भक्ति के सामान्य बंधन में सभी लोगों को बांधने के लक्ष्य से प्रेरित थे।
संकीर्णता-अंधकार में ओझल होता सत्य-सूर्य
किन्तु कालक्रम में आस्थाओं-निष्ठाओं में स्खलन के फलस्वरूप चित्र बदला और स्थिति ऐसी हो गयी, जैसी श्री गुरुजी द्वारा विश्व हिन्दू परिषद, असम के द्वितीय सम्मेलन (27-29 मार्च, 1970 जोरहाट) में वर्णित की गई - 'इस प्रकार की विभेदकारी प्रवृत्तियाँ, छोटे-छोटे परिमाण में अपने इस विशाल हिन्दू समाज के विभिन्न पंथ-उपपंथों में आजकल दिखाई पड़ रही है। इस सत्य को ओझल करने का प्रयत्न किया जा रहा है कि अपने इस विशाल देश में जैन, सिख, बौध्द, शैव, शाक्त, लिंगायत, वैष्णव इत्यादि विभिन्न जितने पंथ और मार्ग हैं, वे इसी विशाल हिन्दू समाज के अंग हैं।' इस व्यथा को और विस्तार देते हुए श्री गुरुजी ने 22 अक्टूबर, 1972 को विश्व हिन्दू परिषद, गुजरात के सिध्दपुर सम्मेलन में कहा- अपने देश के धार्मिक क्षेत्र में अनेक पंथ और सम्प्रदाय हैं और दुर्भाग्य यह है कि ऐसी कुछ विचित्र प्रथाएँ प्रचलित हैं कि इनमें आपसी सहयोग तो क्या, साधारण मिलन भी कठिन हो गया है। ...... इन सब में सामंजस्य निर्माण करने के उद्देश्य से विश्व हिन्दू परिषद का एक सम्मेलन आयोजित हुआ। उसमें पधारने के लिए निमंत्रण देने अपने कार्यकर्ता संप्रदायों के प्रमुखों के पास पहुँचे। एक स्थान पर जब ऐसा निमंत्रण दिया, तो उन्होंने उसे स्वीकार तो किया, परन्तु बोले, 'वहाँ बैठने का प्रबंध क्या है?' जब कार्यकर्ताओं ने उन्हें बैठने की व्यवस्था की जानकारी दी, तो उन्होंने कहा 'तब हम कैसे आ सकेंगे? यह इस मठ का? वह उस सम्प्रदाय का, वे सब क्या हमारे साथ बैठेंगे? वहाँ कैसी व्यवस्था कर रहे हैं? आखिर हमारी कुछ मर्यादाएँ हैं और उनमें श्रेष्ठत्व-कनिष्ठत्व है। इसलिए उनके अनुसार करो, तो हम आएंगे।' यह बात मेरे ध्यान में लाई गई। मैंने विचार किया कि यह तो बड़ी विचित्र बात है कि ऐसे व्यक्ति, जिन्होंने सर्वसंगपरित्याग करके भगवा वस्त्र धारण कर लिया है, वे भी मान-अपमान के क्षुद्र विचार से पीछा नहीं छुड़ा पाए। इसलिए उनसे जब मिलने का अवसर आया, तब मैंने उन्हें प्रणाम कर कहा - 'आप यह गेरुआ वस्त्र उतार दें, तो अपना कुर्ता देता हूँ, उसे पहन लीजिए, फिर ऐसी बातें करें। इस वस्त्र में तो आपकी यह बात सुनने के लिए मैं तैयार नहीं हूँ। मैंने तो कभी चतुर्थाश्रम को स्वीकार नहीं किया है। परन्तु मेरा जीवन तो साधुओं में बीता है। ऐसे महापुरुषों के सान्निध्य में बीता है, जिनके बारे में 'गुरुर्साक्षात् परब्रह्म' कह सकते हैं। उसके आधार पर मैं कहता हूँ कि आप इस वस्त्र को उतार डालें।' वे बहुत श्रेष्ठ पुरुष थे। वे नाराज नहीं हुए। एक क्षण मेरी ओर देखा और कहा - 'भाई! तेरा कहना ठीक है। हम लोग मठ और महन्तों की मर्यादाएँ सँभालने में ही लगे रहे। हमने अपना संन्यास-धर्म ही छोड़ दिया।' बाद में उस सम्मेलन में उन्होंने बड़े उत्साह से भाग लिया। यहाँ सब संप्रदायों के प्रमुखों ने एक मंच पर बैठकर प्रेम से वार्तालाप किया। किसी के मन में किसी के संप्रदाय के बारे में आक्षेप करने का विचार स्वप्न में भी नहीं आया। इस प्रकार एक राष्ट्रीयत्व का साक्षात्कार हम लोगों ने यहाँ पर किया। इससे भी अधिक दु:खद स्थिति का वर्णन श्री गुरुजी द्वारा विश्व हिन्दू परिषद पश्चिम उत्तर प्रदेश के हरिद्वार अधिवेशन में किया गया :- असम में शंकरदेव द्वारा प्रस्थापित कुछ मठ हैं, जिनको वहाँ पर सत्र बोलते हैं और प्रत्येक सत्र के प्रमुख को सत्राधिकारी कहा जाता है। ये मठ ब्रह्मपुत्र के अंदर एक बड़े द्वीप में है। परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि एक ही द्वीप में रहने वाले ये सब मठाधीश गत कुछ दो-तीन शताब्दियों में एक-दूसरे से मिले नहीं। द्वीप बड़ा है, यह बात सच है। परन्तु कुछ ऐसा बहुत दूर तो जाना नहीं था, कुछ ही मीलों के अंदर है। अपने एक महापुरुष के अनुयायी के रूप में सब रहते हैं। पर किसने किसको मिलने के लिए जाना? पहले अपने घर से कौन जाए? फिर वह बड़ा होगा कि मैं बड़ा होऊँगा? पता नहीं कौन-कौन से विचार मन में आए होंगे, भगवान जाने, मैं तो कह नहीं सकता, लेकिन वे गये नहीं। ईश्वर की कुछ ऐसी कृपा हुई कि विश्व हिन्दू परिषद के नाते जो काम हुआ, तो अपने प्रयाग के सम्मेलन (1966) में इनमें से एक बहुत प्रमुख सत्र के सत्राधिकारी आए। फिर उनकी सहायता से और उनकी प्रेरणा से सभी सत्राधिकारी, लगभग दो-ढाई सौ, डेढ़-दो साल के पहले असम में आयोजित एक कार्यक्रम में आए। उस समय सबसे बातचीत हुई। उन्हें बताया गया कि वे सब गिरि-क्षेत्रों में रहने वाले आपके अनुयायी हैं। जब उनसे यह पूछा गया कि उनके पास आप में से कोई जाता है क्या? 'कोई नहीं जाता'! क्यों नहीं जाता? उनका मार्गदर्शन कौन करेगा? समय-समय पर उनको भगवान के नाम से भजन-पूजन करना कौन सिखाएगा? उनके अन्त:करण की, अपने समाज की, धर्म की श्रध्दा को कौन पक्का रखेगा? अपना ही काम नहीं है क्या? तो अपने अगर शिष्य हैं, वंश परम्परा से चलते आ रहे हैं, अपने सत्र के तो उनको मार्गदर्शन करने का अपना जो स्वाभाविक अधिकार है, उसको विस्मृत करके हम चलें-यह ठीक होगा क्या? तो सबने कहा कि यह बात हमारी ओर से ठीक नहीं हुई और हम इस चीज को ठीक करेंगे। इस प्रकार उन्होंने उस कार्य को भी थोड़ी-बहुत मात्रा में शुरू किया है।