लोकमान्य तिलक की भगवद्गगीता के प्रति बहुत श्रध्दा थी। जब वे मांडले जेल में रहे, तब उन्होंने 'गीता रहस्य' नामक पुस्तक भी लिखी थी; पर यह उससे पहले की घटना है। वे अपने अन्य कार्य करते हुए 'केसरी' नामक समाचार पत्र का सम्पादन भी करते थे। एक बार उनका पुत्र बहुत बीमार था, उसकी देखभाल करते हुए भी वे अखबार का काम करते रहे। एक दिन जब वे कार्यालय में बैठे काम कर रहे थे, तो घर से सूचना आयी कि बेटे की तबियत बहुत खराब हो गयी है, जल्दी आइये। उन्होंने उत्तर भिजवाया कि मैं काम पूरा करके आता हूँ। तब तक चिकित्सक को बुलवा लें, क्योंकि दवा तो वह ही देगा। इसके बाद वे सम्पादकीय लिखने लगे और उसे पूरा करके ही घर गये। घर जाकर पता लगा कि बेटे ने प्राण छोड़ दिये हैं। उन्होंने इसे ईश्वर की इच्छा मानकर शान्त मन से उसका अंतिम संस्कार कर दिया। यह थी ध्येय के प्रति उनकी दृढ़ता और मानसिक स्थिरता। गीता में ऐसे व्यक्ति को ही भगवान कृष्ण ने 'स्थितप्रज्ञ' कहा है।
छोटी सी भूल
अनेक बार हम कुछ घटनाओं को छोटी से भूल कहकर छोड़ देते हैं; पर आगे चलकर उसका दुष्परिणाम बहुत भयानक होता है। इसे समझाने के लिए श्री गुरुजी यह बहुचर्चित कथा सुनाते थे। एक विधवा स्त्री और उसका इकलौता पुत्र गाँव में रहते थे। वह महिला बहुत कठिनाई से मेहनत-मजदूरी कर अपना और अपने पुत्र का पालन कर रही थी। माँ की इच्छा थी कि उसका बेटा पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बने। इसलिए उसने उसे गाँव के ही एक विद्यालय में भर्ती भी करा दिया। एक बार वह बालक अपने साथी की पेंसिल चुरा लाया। घर आकर उसने वह माँ को दे दी। माँ ने चुपचाप उसे रख लिया। धीरे-धीरे वह और भी सामान लाने लगा। माँ ने सोचा कि यह छोटा है, डाँटने से नाराज न हो जाये, इसलिए वह चुप ही रहती। अब वह इधर-उधर से पैसे भी लाने लगा। इसी प्रकार होते-होते वह एक बड़ा अपराधी बन गया। एक बार डकैती और हत्या के अभियोग में वह पकड़ा गया और उसे फाँसी की सजा घोषित हो गयी। फाँसी से पूर्व जब उसकी अंतिम इच्छा पूछी गयी, तो उसने अपनी माँ से मिलना चाहा। जब माँ सामने आयी, तो उसने कान में कुछ बात कहने के बहाने माँ का कान काट लिया। माँ दर्द से चीख पड़ी। वहाँ खड़े लोग उसकी आलोचना करने लगे। कारण पूछने पर उसने कहा कि मेरी इस दुर्दशा की दोषी मेरी माँ ही है। जिस दिन मैंने पहली बार चोरी की थी, यदि उसी दिन माँ ने कान खींचकर मुझे रोक दिया होता, तो मैं आज यहाँ नहीं होता। इसीलिए मैंने माँ का कान काटा है। स्पष्ट है कि भूल चाहे छोटी ही हो; पर तुरंत टोक देने से वह बड़ी होने से बच जाती है।
यह कैसा धर्म?
महाभारत के युध्द में जब अर्जुन और कर्ण का युध्द हो रहा था, तो एक समय ऐसा आया जब कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में धँस गया। वह शस्त्र रथ में ही रखकर नीचे उतरा और उसे निकालने लगा। यह देखकर भगवान कृष्ण ने अर्जुन को संकेत किया और उसने कर्ण पर बाणों की बौछार कर दी। इससे कर्ण बौखला गया। वह अर्जुन की निन्दा करने लगा - इस समय मैं नि:शस्त्र हूँ। ऐसे में मेरे ऊपर बाण चलाना अधर्म है। पर श्रीकृष्ण ने उसे मुँहतोड़ उत्तर देते हुए कहा - महाबली कर्ण, आज तुम्हें धर्म याद आ रहा है; पर उस दिन तुम्हारा धर्म कहाँ गया था, जब द्रौपदी की साड़ी को भरी सभा में खींचा जा रहा था। जब अनेक महारथियों ने निहत्थे अभिमन्यु को घेरकर मारा था, तब तुम्हें धर्म की याद क्यों नहीं आयी ? श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपनी बाणवर्षा और तेज करने को कहा। परिणाम यह हुआ कि कर्ण ने थोड़ी देर में ही प्राण छोड़ दिये। यह इतिहास कथा यह बताती है कि धर्म का व्यवहार केवल धर्म पर चलने वालों के लिए ही होना चाहिए। दुष्टों को उनके जैसी दुष्टता से दंड देना बिल्कुल गलत नहीं है।
सबसे बड़ा मानव-धर्म
जब तक हमारे मन में मानवमात्र के लिए प्रेम नहीं होगा, तब तक सामाजिक कार्य संभव नहीं है। यह समझाने के लिए श्री गुरुजी एक बहुप्रचलित कथा सुनाते थे। एक नदी में एक साधु बाबा नहा रहे थे। अचानक उन्होंने देखा कि एक बिच्छू नदी के तेज बहाव के साथ बह रहा है। साधु ने सोचा कि यदि इसे बाहर न निकाला गया, तो यह नदी में डूबकर मर जाएगा। अत: उन्होंने अपना हाथ पानी में डालकर बिच्छू को उठा लिया। पर बिच्छू जैसे ही पानी से निकला, उसने साधु के हाथ पर डंक मार दिया। डंक लगते ही बाबा का हाथ काँपा और बिच्छू फिर नदी में जा गिरा। यह देखकर बाबा ने उसे फिर उठाया; पर बिच्छू ने फिर डंक मार दिया। जब यह क्रिया तीन-चार बार हो गयी, तो निकट ही स्नान कर रहा एक अन्य व्यक्ति बोला - बाबा जी, आप देखने में तो बहुत ज्ञानी लगते हैं; पर यह नहीं जानते कि बिच्छू का स्वभाव ही डंक मारना है। फिर भी आप उसे बार-बार पानी से बाहर निकाल रहे हैं। साधु बाबा ने कहा - मैं बिच्छू का स्वभाव अच्छी तरह जानता हूँ। वह पानी में डूब रहा है, फिर भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ रहा। इसी तरह डूबते को बचाना मेरा स्वभाव है। यदि वह बिच्छू होकर अपना स्वभाव नहीं छोड़ रहा, तो मैं साधु होकर अपना स्वभाव क्यों छोड़ूँ ? यह कथा सुनाकर श्री गुरुजी बताते थे कि समाज का कार्य करते समय लोग अपने स्वभाव के अनुसार तरह-तरह की बातें कहेंगे। कई लोग प्रताड़ित भी करेंगे। पर हमें अपना सेवा का स्वभाव एवं प्रेमभाव नहीं छोड़ना है। तभी हमें सफलता मिलेगी।
शस्त्र बड़ा या हिम्मत?
प्राय: लोग गुरुजी से कहते थे कि आप शाखा में जो लाठी सिखाते हैं, उससे क्या होगा ? आज तो बंदूक-पिस्तौल का युग है। ऐसे लोगों को श्री गुरुजी एक सत्य घटना सुनाते थे। देश विभाजन के समय की बात है। पंजाब का जो भाग पाकिस्तान को मिल गया था, वहाँ से हिन्दू अपनी जान-माल बचाकर बड़ी कठिनाई से भारत की ओर आ रहे थे। अनेक हिन्दू परिवारों के पास शस्त्र भी थे। ऐसे ही एक परिवार की यह घटना है। मुस्लिम गुंडों ने जब गाँव को घेर लिया, तो उस परिवार के लोग अपने घर की छत पर चढ़ गये। घर के मुखिया के पास दोनाली बंदूक थी। वह उसे लेकर बैठ गया। नीचे गुंडे दरवाजा तोड़ने की तैयारी कर रहे थे; पर उसकी बंदूक से वे डरे भी हुए थे। अचानक एक गुंडे ने बड़ा छुरा निकाला और उसे लहराते हुए बोला, ''सेठ, या तो अपनी बंदूक नीचे फेंक दे, वरना अभी यह छुरा फेंककर तेरा काम तमाम करता हूँ।'' सेठ यह सुनते ही भयभीत हो गया और उसने बंदूक नीचे फेंक दी। तब तक मुस्लिम गुंडों ने दरवाजा तोड़ दिया। वे सब ऊपर चढ़ गये और उसी बंदूक से सेठ के पूरे परिवार को मार डाला। श्री गुरुजी यह कथा सुनाकर बताते थे कि शस्त्र से अधिक महत्त्व शस्त्र चलाने वाले हाथ और दिल की हिम्मत का है। शाखा में दंड के अभ्यास से इन दोनों को ही मजबूत करने का प्रयास होता है।