किन्तु सम्पूर्ण समाज में समरसता निर्माण करने में वह ही विफल सिध्द हुई। इसके साथ ही उसका मूलाधार तो व्यक्ति स्वातंत्र्य ही था। अतः इस सामाजिक-आर्थिक विषमता के विरुध्द जबरदस्त प्रतिक्रिया ने समाजवाद या समूहवाद अथवा मार्क्सवाद का रूप ले लिया। इस अवधारणा ने इस बात पर बल दिया कि सम्पत्ति के कारण सामाजिक- आर्थिक विषमता उत्पन्न होती है अतः व्यक्तियों के पास अपनी कोई निजी सम्पत्ति नहीं होनी चाहिए। सम्पत्ति पर समाज का एकाधिकार प्रस्थापित करना ही एकमात्र रामबाण उपाय है। अब चूँकि कुटुम्ब अथवा परिवार का संचालन बिना सम्पत्ति के नहीं हो सकता, इसलिए कुटुम्ब नामक इकाई को भी समाप्त कर देना चाहिए। अपनी इसी मनोरचना के आधार पर उन्होंने यहाँ तक कहना प्रारंभ कर दिया कि जिस प्रकार पशु-पक्षी जगत् में स्थायी वैवाहिक संबंध नहीं होते उसी भाँति मानव समाज में भी उसकी क्या आवश्यकता है? इस समाजवादी मार्क्सवाद में यह भी स्पष्ट किया गया कि व्यक्तिगत संपत्ति और कुटुम्ब नामक इकाइयों का उच्चाटन करने पर सम्पूर्ण समाज को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी राज्य और सरकार पर होगी। उसे अपने अन्तर्गत आने वाले सम्पूर्ण जन-समाज पर असीमित अधिकार और सत्ता प्राप्त होगी। व्यक्तिगत संपत्ति और परिवार या कुटुम्ब के न रहने पर व्यक्तियों में संग्रह करने की प्रवृत्ति धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी क्योंकि उनकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति राज्य करता रहेगा।
मार्क्सवादी समाजवाद अथवा समूहवाद ने बड़े जोर-शोर से यह उद्धोष भी किया कि व्यक्तियों की पारस्परिक प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वन्द्विता समाप्त होने तथा सभी व्यक्तियों में इस प्रकार पूर्ण समानता प्रस्थापित हो जाने पर राज्य की भी आवश्यकता नहीं रहेगी और धीरे-धीरे उसका विलोप हो जायेगा।