श्री गुरुजी-सदृश मार्गदर्शकों की उदारता उनके अनुयायियों में तदनुरुप समानुपाती आचरण में कैसे प्रकट होती है, इसकी बानगी और प्रमाण के तौर पर निम्नलिखित उदाहरण देखे जा सकते हैं :-
बंगाल के वरिष्ठ प्रचारक श्री बंसीलाल सोनी (मालदा) को 5 जून, 1971 को लिखित पत्र में श्री गुरुजी मत-पंथ-समुदाय के भेदभाव के बिना समभाव से सेवा करने का निर्देश देते हैं :- .. सभी समाज अपना है, इस कारण सबकी सेवा अपना कर्तव्य है। प्रकृति-प्रकोप की चपेट में सब आते हैं, आए हैं। अत: सेवा करते समय मनुष्य-मनुष्य में भेद करना उचित नहीं होगा, यह अपना स्थायी सिध्दान्त है।
एक अन्य प्रसंग से भी श्री गुरुजी के संत-सुलभ मानवीयता के दर्शन किए जा सकते हैं। वे कहते हैं- 'दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के कारण अपने मुसलमान बंधु पाकिस्तान की ओर जा रहे थे। अन्न-पानी नहीं था, गटर का पानी पीना पड़ रहा था, लोग हैजे से मर रहे थे। मेरे सामने एक व्यक्ति अकस्मात मर गया। मेरे मुँह से स्वभावत: निकला- अरे रे ! मेरा सह-प्रवासी बोला- अच्छा हुआ, एक कम हो गया। मैंने उससे कहा- एक व्यक्ति मर गया और तू कहता है, अच्छा हुआ ! अपने धर्म की सीख, सभ्यता, तत्त्वज्ञान और मानवता का कुछ ज्ञान है कि नहीं ?
'विचार नवनीत' (पृष्ठ 134) :- श्री गुरुजी मत-पंथ-सम्प्रदाय संबंधी अपने दृष्टिकोण की पुनर्पुष्टि करते हुए कहते हैं, 'हम इतने क्षुद्र नहीं कि केवल पूजा का प्रकार बदल जाने से कोई व्यक्ति इस भूमि का पुत्र नहीं रहता। हमें ईश्वर को किसी भी नाम से पुकारने में कोई आपत्ति नहीं है। हम संघ के लोग पूर्णरूपेण हिन्दू हैं, इसलिए हममें प्रत्येक पंथ और सभी धार्मिक विश्वासों के प्रति सम्मान का भाव है। जो अन्य पंथों के प्रति असहिष्णु है, वह कभी भी हिन्दू नहीं हो सकता। किंतु अब हमारे सामने प्रश्न यह है कि जो मुसलमान और ईसाई हो गए हैं, उनका भाव क्या है ? निस्संदेह वे इसी देश में पैदा हुए हैं, किन्तु क्या वे इसके प्रति प्रामाणिक हैं ? इस मिट्टी के प्रति ऋणी हैं ? क्या वे इस देश, जहाँ उनका पालन-पोषण हुआ है, के प्रति कृतज्ञ हैं ? क्या वे अनुभव करते हैं कि वे इस देश और इसकी परम्पराओं की संतति हैं और इसकी सेवा करना उनके भाग्य की धन्यता है ? क्या उसकी सेवा वे अपना कर्तव्य मानते हैं ? परंतु हम देखतें है कि धर्म-परिवर्तन के साथ ही उनकी राष्ट्र के प्रति प्रेम व भक्ति की भावना समाप्त हो गई है। यहीं तक नहीं, वरन् उनमें तो देशके शत्रुओं के साथ अभिन्नता की अनुभूति भी विकसित हो गई है। वे अपनी पवित्र भूमि के रूप में किन्हीं अन्य देशों की ओर देखते हैं। वे लोग अपने को शेख और सैयद कहते हैं। शेख और सैयद तो अरब की जातियाँ हैं। ये लोग कैसे इस प्रकार का अनुभव करने लगे कि ये उनके वंशज हैं ? इसका कारण है कि उन्होंने अपने इस देश से आबध्द करने वाले सभी पूर्व पारम्परिक राष्ट्रीय संबंध-सूत्र काटकर अलग कर लिये हैं और मानसिक रूप से अपने को आक्रान्ताओं से एक कर लिया है। वे आज भी यही सोचते हैं कि वे केवल इस देश को विजय करके यहाँ राज्य स्थापित करने आए हैं। हम कहते हैं कि यह बात केवल धर्म-परिवर्तन की ही नहीं है, उनके राष्ट्रीय तादात्म्य में भी परिवर्तन आ गया है। अपने मातृराष्ट्र को संकट में छोड़कर शत्रु से मिल जाना राष्ट्रद्रोह नहीं, तो और क्या है ?
2 नवंबर 1972 को ठाणे (मुम्बई) में देश भर के संघ-विभाग प्रचारकों के साथ प्रश्नोत्तर कार्यक्रम में श्री गुरुजी आलोचकों को चुनौती देते हुए कहते हैं, 'कोई एक भी उदाहरण तो दिखा दे, जब अन्य मतावलंबी को हमने कभी कष्ट दिया। हमने उनका सम्मान किया, उन्हें स्थान दिए, उनके प्रार्थना-मंदिर बनाए। इन उदाहरणों के बाद भी यदि कोई कहता है कि हिन्दू संकुचित है, तो वह दुष्टबुध्दी से कहता है। ईसाई मुस्लिम, हिन्दू सब साथ-साथ रहने चाहिए- यह भी केवल हिन्दू ही कहता है, मुसलमान या ईसाई नहीं। हमारा किसी उपासना पध्दति से द्वेष नहीं, परंतु राष्ट्र के विरोध में जो भी खड़ा होगा, फिर वह प्रत्यक्ष अपना पुत्र ही क्यों न हो, तो अहल्याबाई और छत्रपति शिवाजी महाराज के समान व्यवहार का आदर्श हमारे यहाँ है। तब राष्ट्रविरोधी यदि अन्य मतावलंबी हुआ, तो उसके साथ भी वैसा ही व्यवहार करेंगे, यह कहने में हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए।' (श्री गुरुजी समग्र खण्ड 2, पृष्ठ 329)
श्री गुरुजी ने जीवन के अंतिम चरण में अपनी बीमारी के दौरान मार्च-अप्रेल 1973 में भी गुलाबराव महाराज पर एक शोधाप्रबंध-सम्बधी मार्गदर्शन करते हुए जो विचार प्रकट किये, वे विभिन्न मत-पंथों के सम्बन्ध में उनके दृष्टिकोण को समझने में अति सहायक होंगे :- 'उन्होंने भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के तथा धर्मों के तत्त्व-विचारों को अद्वैत सिध्दांत पर रखकर कठोर युक्तियों से परास्त किया, किन्तु भारतीय समाज के भिन्न-भिन्न घटकों में परस्पर विद्वेष उत्पन्न न हो, इसलिए समन्वय भी कर दिखाया और बाद में अंतिम वेदान्त-सिध्दान्तों का तौलनिक तथा समतोल रीति से प्रतिपादन किया।' 'भारतीय समाज के भिन्न-भिन्न घटक या सम्प्रदाय परस्पर द्वेष या झगड़ा न करें, इसलिए बहुत महत्त्वपूर्ण समन्वय विचार सामने रखा। यह अपने संपूर्ण देश के बंधुभाव को तथा राष्ट्रीय एकात्मता को श्री गुलाबराव महाराज जी का दिया हुआ तात्विक अधिष्ठान है। इस समन्वय विचार के बहुत दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। इस्लाम, ईसाई, पारसी, बौध्द इत्यादि उपासना-पध्दतियों के प्रमुख तत्त्व ऐतिहासिक दृष्टि से प्राचीन हिन्दू संस्कृति में यानि आर्य संस्कृति में थे, यह महाराज ने सिध्द किया है। इस विचार की दिशा बहुत ही मूलगामी है। इसके अनुसार प्रबोधन हुआ, तो भिन्न-भिन्न दिखाई देने वाले भारतीय समाज की एकात्मता का अनुभव तो करेंगे ही, साथ ही विश्व के सर्व धर्मों के समाज परस्पर सामंजस्य से रह सकेंगे। इस महत्त्वपूर्ण विषय का विस्तार व सूक्ष्मता से अध्ययन होकर विश्व के सामने अच्छी तरह से प्रस्तुत होना चाहिए।' (श्री गुरुजी समग्र, खण्ड 1)
'विचार नवनीत' (पृष्ठ 172) में श्री गुरुजी का कथन है: इस विशाल भूमण्डल पर केवल हिन्दू विचारधारा ने ही सम्पूर्ण मानव-सभ्यता में एक ही सर्वशक्तिमान् की सर्वव्यापकता को स्वीकार किया और सभी पंथों व उपासना पध्दतियों को स्वाभाविक रूप से पुष्पित-पल्लवित होने का अवसर प्रदान करने के साथ-साथ उनको ससम्मान प्रोत्साहन एवं संरक्षण भी दिया है। ..
मत-पंथों-सम्बन्धी अंतिम लक्ष्य की चर्चा करते हुए श्री गुरुजी, विचार नवनीत (पृष्ठ 179) पर कहते हैं- व्यावहारिक धरातल पर राष्ट्र में एकात्मता लाने के लिए विविध पध्दतियों की समाप्ति नहीं, बल्कि अनन्यता (एकमेवता) व असहिष्णुता का अवसान अपेक्षित है। ..मत-पंथों की सुरक्षा व सम्मान करते हुए उन्हें इस राष्ट्र के साथ एकाकार करने का संस्कार देने की व्यवस्था करनी होगी।'
10 मार्च, 1954 को सिंदी (महाराष्ट्र) में संघ के जिला-प्रचारकों के अखिल भारतीय कार्यक्रम में भी गुरुजी द्वारा प्रदत्त प्रबोधन परम प्रेरक है- मानव की एक ही स्थिति का विचार भी हमारे यहाँ है। किंतु, वह तभी संभव है, जब मानव अतिमानव के रुप में विकसित हो जाए। जब तक मानव, मानव रहेगा, जब तक उसकी भिन्न गुण-प्रकृति बनी रहेगी और जब तक गुण वैशिष्टय को प्रकट करने वाला तथा उसके अनुसार चलने वाला राष्ट्र रहेगा, तब तक अपनी सम्पूर्ण शक्ति और बुध्दि उसके समन्वय के लिए ही लगनी चाहिए।' और उस बहु-उच्चारित सुप्रसिध्द श्लोक का सतत् स्मरण करते रहना चाहिए, जो अद्भुत सुंदरता से हिन्दू-दर्शन के विविध पंथों में स्वरैक्य एवं एकत्व का समावेश करता है-
यं शैवा: समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो
बौध्दा बुध्द इति प्रमाणपटव: कर्तेति नैयायिका:।
अर्हन्नित्यथ जैनशासनरता: कर्मेति मीमांसका:
सो यं वो विदधातु वांछितफलं त्रैलोक्यनाथो हरि:॥
(रामभक्त हनुमान, हनुमन्नाटकम्, अंक 1:3)
(वह जिसकी उपासना शैव, 'शिव' मानकर करते हैं, वेदांती जिसे 'ब्रह्म' मानकर उपासते हैं, बौध्द जिसे 'बुध्द' और तर्क-पटु नैयायिक जिसकी 'कर्ता' मानकर आराधना करते हैं, एवं जैन लोग जिसे 'अर्हंत' मानकर तथा मीमांसक जिसे 'कर्म' बताकर पूजते हैं- वहीं