श्री मोहम्मद करीम छागला द्वारा श्रीगुरुजी से मंत्रणा - वचनेश त्रिपाठी
''राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ'' के 33 वर्षों तक मार्गदर्शक रहे श्री गुरुजी में जो बहुमुखी प्राक्तन प्रतिभा थी, उनकी गरिमा का आकलन पाना कभी संभव नहीं हो सका। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनमें अग्रणी होने की क्षमता थी। उन्होंने 33 वर्षों तक देश के लाखों तरुणों को मोह-निद्रा से जगाकर देश, धर्म और समाज-सेवार्थ प्रेरित करने का जो बीड़ा उठाया था, उसे अनूठे ढंग से निभाया भी था। आज भी उनकी प्रेरणा लक्ष-लक्ष हृदयों में गुंजायमान है और वही हम सबका पाथेय है। हम उन्हें जितना ही स्मरण करेंगे, हमारा यात्रा-पथ उतना ही प्रशस्त होगा। यहाँ मैं श्री गुरुजी की ही पवित्र स्मृति से संबध्द एक समय देश के शिक्षा मंत्री रहे श्री मोहम्मद करीम छागला से हुई श्री गुरुजी की भेंट-वार्ता को उद्धृत कर रहा हूँ।
उस भेंट-वार्ता की चर्चा उन्हीं दिनों मैने अपने दिल्ली-प्रवास के समय सुनी थी। दिल्ली में ही एक रोज तत्कालीन केन्द्रीय शिक्षा मंत्री श्री छागला ने देश की शिक्षा-पध्दति के विषय में चर्चा करते हुए श्री गुरुजी से पूछा- ''ये ही विद्यार्थी आपके संघ की शाखाओं में भी जाते हैं, लेकिन वहां तो उनका व्यवहार अत्यन्त अनुशासनपूर्ण, सौजन्ययुक्त और संयमित रहता है। आप उन्हें कौन सी शिक्षा देते हैं, जो वे वहाँ गाली-गलौज, नारेबाजी और तोड़-फोड़ करना सभी कुछ भूल जाते हैं?''
श्री छागला के प्रश्न का उत्तर देने के बजाए उल्टे श्री गुरुजी ने उन्हीं से प्रश्न किया कि, ''आप रूस-यात्रा से लौटे हैं; वहाँ का विद्यार्थी आपको कैसा लगा?''
श्री छागला ने बताया कि, ''वहाँ का छात्र समुदाय तो बड़ा ही परिश्रमी, उत्साही और पूर्णतया अनुशासित लगा।''
तब श्रीगुरुजी ने प्रश्न किया कि- ''आपने तो वहाँ के नेताओं को भी देखा होगा और वहाँ के शिक्षा-विदों से भी मिले होंगे। वे लोग छात्रों को क्या बताते हैं?''
श्री छागला ने कहा कि, ''वे अपने देश के छात्रों को सभी क्षेत्रों में अग्रणी होने का उपदेश देकर प्रेरित करते हैं और छात्रों से कहते हैं कि इसी आधार पर रूस विश्व का मार्गदर्शक बन सकता है, साथ ही समाजवाद का प्रसार हो सकता है। जब रूस के छात्र प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ेंगे, प्रगति करेंगे, तभी यह कहना संभव हो सकेगा कि यह जो हो रहा है, समाजवाद के कारण ही हो रहा है।''
तब श्रीगुरुजी ने कहा- ''रूस के नेताओं ने तो अपने देश के छात्रों के सम्मुख ऐसा कोई लक्ष्य रखा है? क्योंकि जीवन का यदि एक निर्धारित लक्ष्य होता है, तो उसकी प्राप्ति हेतु मनुष्य अनुशासन स्वीकार करता है। ''राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ'' ने देश को महान बनाने का एक धयेय स्वयंसेवकों के सामने रखा है, तभी वे अनुशासन में आस्था रखते हैं।''
इस पर श्री छागला ने प्रश्न किया कि, ''क्या हमारी केन्द्रीय सरकार भी देश में छात्रों के लिए ऐसा कोई लक्ष्य निर्धारित कर सकती है?''
श्री गुरुजी का उत्तर था - ''क्यों नहीं, यहाँ सरकार यह कर तो सकती है, किन्तु उस लक्ष्य के प्रति सरकार छात्रों में आस्था नहीं जगा सकेगी। भारत ने 30 शताब्दियों तक विश्व का मार्गदर्शन किया और प्रत्येक क्षेत्र में नेतृत्व किया। उसी कालखण्ड को इतिहास में हम ''हिन्दू काल'' कहते हैं। यदि यह गौरवमय इतिहास यहां के छात्रों को मात्र 25 पृष्ठों में ही पढ़ाया जायेगा जबकि इसके विपरीत मुस्लिम और अंग्रेजों की दासता का इतिहास 500 प्रष्ठों में पढ़ाया जायेगा, तो ऐसी शिक्षा यहाँ के छात्रों को क्या प्रेरणा देगी?''
आगे पुनः इसी क्रम में श्रीगुरुजी ने कहा कि, ''छात्रों में ऐसी आस्था उत्पन्न करने हेतु इतिहास भिन्न प्रकार से लिखना होगा। क्लाइव के चाचा क्या करते थे या कार्नवालिस किस खानदान का था, भारत में कितने मुसलमान बादशाह और नवाब बादशाह हुए, यह जानकर हमें क्या करना है? इतिहास तो प्रेरणा का स्रोत और नई पीढ़ी के मार्गदर्शन का माध्यम होना चाहिए। क्या हमारे आज के शासक देश के छात्रों के लिए ऐसा प्रेरक इतिहास लिख सकेंगे? उन्हें तो यही भय रहेगा कि कहीं वह हिन्दू देश का इतिहास न कहा जाने लगे।''
और अन्ततः तब श्री छागला ने श्री गुरुजी के विचारों से पूर्ण सहमति व्यक्त करते हुए स्वीकार किया कि श्री गुरुजी द्वारा प्रस्तावित इतिहास ही भारतीय छात्रों की प्रेरणा का स्रोत बन सकता है। वस्तुत: श्री गुरुजी स्वयं में मूर्तिमान संघ थे। हमारा क्या आदर्श हो? हम कैसा व्यवहार करें? क्या सोंचे? क्या मनन करें? इसका एक ज्वलंत आदर्श वे हमारे सबके सामने प्रस्तुत कर गये हैं। उन्होंने श्री छागला से जो कहा, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है।
सन् 1951 की बात है। उन दिनों श्री गुरुजी ही सरसंघचालक थे। उनका प्रयाग में प्रवास होने वाला था तो रज्जू भैया और कार्यकर्ताओं ने योजना बनाई कि पूज्य श्री गुरुजी का प्रयाग विश्वविद्यालय में भी अध्यापकों तथा छात्रों के समक्ष कोई कार्यक्रम हो। परन्तु तभी छात्रों की वहाँ जो यूनियन थी, उसके कम्युनिस्ट विचारधारा वाले कतिपय छात्र कार्यक्रम के विरूध्द प्रदर्शन करने की बात प्रचारित करने लगे। श्री सी.बी.आर.भट्टाचार्य उन दिनों उपकुलपति थे। उनका विचार बना कि उन्हीं के आवास पर श्री गुरुजी से भेंट-वार्ता का एक कार्यक्रम वरिष्ठ प्राधयापकों और छात्रों के लिए रखा जाय, साथ ही इतिहास विभाग के छात्रों के समक्ष एक विषय निश्चित कर भाषण भी कराया जाए। उस छात्र-कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रसिध्द इतिहास वेत्ता डा. राम प्रसाद त्रिपाठी, जो बाद में सागर विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे - बनाये गये। अनेक प्राधयापक भी श्री गुरुजी के इस कार्यक्रम में मौजूद थे। अतीव सफलतापूर्वक कार्यक्रम निर्विघ्न पूर्ण हुआ। अगले रोज श्री गुरुजी के विषय में विश्वविद्यालय में आमतौर पर यह चर्चा गर्म रही कि, ''संघ का प्रमुख (श्री गुरुजी) इतना बड़ा विद्वान, इतने सुलझे विचारों का होगा-यह हमारी किसी की स्वयं की भी कल्पना नहीं रही थी और स्वर्गीय श्री तेजबहादुर सप्रू के सुपुत्र श्री त्रियुगी नारायण सप्रू तो कई दिनों तक यह कहते रहे कि, ''हम लोग तो कार्यक्रम में यह सोचकर गये थे कि एक तानाशाह से हमें मिलना है किन्तु वहां भेंट हुई एक अत्यन्त मृदुभाषी मनीषी से।''
इसके विपरीत देखा यह जाता था कि संघ और श्री गुरुजी के विषय में अनेक भोंडी और विचित्र कल्पनाएँ भले लोगों के मन में भर दी गई थीं।
उदाहरणार्थ, ऐसे ही एक बार लोकसभा के कम्युनिस्ट दल के एक प्रमुख नेता ने संघ के एक कार्यकर्ता से पूज्य श्री गुरुजी के विषय में पूछा कि, ''तुम लोग यह कहाँ हिमालय से पकड़ कर सन्यासी ले आये हो?'' किन्तु जब उन्हें ज्ञात हुआ कि श्री गुरुजी तो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रह चुके हैं और वह भी विज्ञान विषय के, तो उन कम्युनिस्ट नेता महाशय जैसे अपने ही बुने हुए जाल में कितने लोग- और वह भी प्रमुख श्रेणी के - फंसे हैं, इसी बात का उक्त एक उदाहरण मिला।
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साभार - श्री गुरूजी जन्म शताब्दी अंक, विश्व संवाद केन्द्र पत्रिका, लखनऊ.