भारत में ईसाइयों और मुसलमानों के सम्बन्ध में विच
श्रीगुरुजी (हिंदी)   26-Oct-2017
देश में वास करने वाले यहूदी और पारसी इस देश के प्रति भक्त रहे। बचे केवल मुसलमान और ईसाई। ईसाईयों ने उस समय अधिक गड़बड़ नहीं की, क्योंकि वे अंग्रेजी शासन को बान्धवों का शासन समझते थे। इसलिए वे उनके शासन को दृढ़ बनाने में सहयोग ही देते थे। अंग्रेज तो ईसाईयों को प्रोत्साहन देते ही थे। सन् 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में ईसाई मिशनरियों द्वारा सेना में घूम-घूमकर ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति वफादारी का प्रचार किया गया। इसके अतिरिक्त स्वतन्त्रता-संघर्ष में रत लोग भ्रांत धारणा रखते थे कि प्रजातन्त्र के अगुआ यूरोप के सहधर्मी ईसाई प्रचारक, स्वतन्त्रता और जनतन्त्र के प्रचारक हो सकते हैं।
 
भारत में मुसलमानों और ईसाइयों के जीवन में आज जो विदेशी भाव दिखाई देता है, उसके ऐतिहासिक कारण हो सकते हैं। क्योंकि भारत में इन दोनों ही पंथों का प्रसार परकीय, राजसत्ता के साथ, उसके साधन के रूप में तथा उसकी छत्रछाया में हुआ। इन विदेशियों ने अपनी उपासना-पध्दति की श्रेष्ठता प्रतिपादित कर अपने मत का प्रसार नहीं किया, अपितु आतंक और अत्याचार का सहारा लेकर यहाँ के राष्ट्रीय जनों का उनकी प्राचीन परम्परा से विच्छेद, उन्हें अपनी सत्ता के समर्थक बनाने के उद्देश्य से किया। जीवन के भय और सत्ता के लोभ के कारण अनेक लोगों ने इन उपासना-पध्दतियों को स्वीकार किया, साथ ही वे विदेशियों की जीवन-पध्दति के भी अनुरागी बन गए। यह सब हमारी गुलामी का ही द्योतक है। (पांचजन्य, राष्ट्रीय एकता विशेषांक, 1960)
'विचार नवनीत' में हिन्दू राष्ट्र की अनुपमता प्रतिपादित करते समय सेमेटिक विरोधाभास की चर्चा करते हुये श्री गुरुजी कहते हैं :-
यहूदीवाद ऐसा पहला मजहब है, जो असहिष्णु है और इसकी इसी असहिष्णुता के कारण ईसा मसीह को सूली पर चढ़ा दिया गया था। ईसाई मजहब का उदय यहूदी-संतति के रूप में हुआ, किन्तु वह भी उतना ही असहिष्णु सिध्द हुआ। नि:संदेह यीशु महान संत थे, परंतु बाद में उनके नाम पर जो कुछ हुआ, उसका उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रहा। यह ईसाईवाद नहीं, केवल चर्चवाद रह गया। यह कथन अक्षरश: सत्य सिध्द हुआ कि 'आजतक केवल एक सच्चा ईसाई हुआ, जो सूली पर मर गया'। ईसाईयों ने यहूदियों को ईसा के हत्यारे घोषित कर उन पर हर प्रकार के अत्याचार किये। हिटलर का व्यवहार अपवाद नहीं था, बल्कि ईसाइयों द्वारा 2000 वर्ष से यहूदियों पर ढाये जा रहे अत्याचारों की चरम परिणति था।
3 फरवरी 1969, कंचनगढ़, कासरगोड में (केरल) स्वयंसेवको से वार्ता में वे प्रतिपादित करते हैं :-
हम जिसे आज ईसाई मत कहते हैं, वह ईसा मसीह की मृत्यु के कुछ सदियों के पश्चात् बना है। उसमें भी किसी ने ईसा मसीह के विषय में प्रमाणित नहीं किया है। ईसा के चार शिष्यों ने जो कहा है, ईसाई मत के लागों को वही जानकारी है। उन चार शिष्यों की विचार-प्रतिपादन शैली भिन्न है। इनके अनेक विचार भी एक-दूसरे से मेल खाने वाले नहीं हैं। इन सब को सुसूत्र संगठित कर चर्च संस्था प्रस्थापित करने का कार्य पॉल महोदय ने किया। उस क्षेत्र विशेष के जानकार ज्ञाता इसे चर्च का मत मानते हैं। यहूदी लोगों के बारे में पॉल महोदय कहते हैं कि ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह सही नहीं है कि उनका मूल स्थान पैलेस्टाइन है। आतंकित कर शत्रुओं ने उनको अपने मूलस्थान से बाहर खदेड़ दिया। अत: वे लाल सागर पार कर पैलेस्टाइन में आये। वहाँ के मूल निवासी अरब लोगों पर विजय प्राप्त कर उनको बाहर भगाकर यहूदी पैलेस्टाइन में बस गए, इस कारण से यहूदी लोगों को वहाँ रहने का नैतिक अधिकार नहीं है। राजनीति में चलने वाली गतिविधियाँ आज भले ही भिन्न हैं, ऐतिहासिक सत्य मैंने आपके सम्मुख प्रस्तुत किया है। जो सोचते है कि केवल ईसा ही 'जंगली' हिन्दुस्थान का उध्दार कर सकता है, उन्हें गंभीरता से इस बात का विचार करना चाहिए कि रूस-जैसे कट्टर ईसाई देश ने ईसा को क्यों अस्वीकार किया। उन्होंने ईसाइयत को क्यों उखाड़ फेंका? यहाँ तक कि माक्र्स ने भी नहीं सोचा था कि रूस में क्रान्ति हो सकती है।
असली इरादे
जहाँ तक ईसाइयों का संबंध है, ऊपरी तौर से देखने वाले को तो वे नितांत निरुपद्रवी ही नहीं, वरन् मानवता के लिए प्रेम एवं सहानभूति के मूर्तिमान स्वरूप प्रतीत होते हैं। उनकी वक्तृताएँ 'सेवा' एवं 'मानवोध्दार' जैसे शब्दों से परिपूर्ण रहती हैं। उनसे प्रतीत होता है मानो सर्वशक्तिमान ने उन्हें मानवता के उत्थान के लिए विशेष रूप से नियुक्त किया है। सब स्थानों पर वे स्कूल, कॉलेज, अस्पताल तथा अनाथालय चलाते हैं। हमारे देश के लोग, जो सीधे-सादे और भोले हैं, इन बातों पर विश्वास करने लगते हैं। किन्तु इन सब गतिविधियों में करोड़ों रुपए ऊँडेलने में ईसाइयों का वास्तविक और अंतरस्थ उद्देश्य कुछ अलग ही है। हमारे स्वर्गीय राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद एक बार असम गये थे। उन्होंने वे स्कूल और अस्पताल देखे, जिन्हें ईसाई धर्मप्रचारकों ने उन पहाड़ी प्रदेशों में स्थापित कर रखा था। उन्होंने उन सब कार्यों के प्रति अपना संतोष व्यक्त किया, किंतु अंत में यह उपदेश भी दिया कि- निस्संदेह तुमने बहुत अच्छा काम किया है, परंतु इन चीजों को धर्मांतरण के उद्देश्य के लिए उपयोग में मत लाना। पर उनके बाद जो धर्मप्रचारक बोला, उसने सीधो शब्दों में कह दिया- 'यदि हम केवल मानवता के विचार से ही यह करने के लिए प्रोत्साहित हुए होते तो यहाँ इतनी दूर क्यों आते? इतना धन हम लोग क्यों व्यय करते? हम तो यहाँ एक ही निमित्त से हैं कि अपने प्रभु ईसा के अनुयायियों की संख्या में वृध्दि करें।' वे इस विषय में अत्यन्त स्पष्ट हैं। अनेक प्रमुख ईसाई धर्मप्रचारक इस बात को असंदिग्ध रूप से घोषित कर चुके हैं कि उनका एक ही लक्ष्य है- इस देश को ईसा के साम्राज्य का एक प्रांत बनाएँ। चेन्नै के 'वेदांत केसरी' की सूचना के अनुसार मदुरै के आर्क बिशप ने कहा है कि उनका मुख्य उद्देश्य है संपूर्ण भारत पर ईसा के झंडे को फहराना। अभी हाल में मुंबई में हुई युकेरिस्टक कांग्रेस में कार्डिनल ग्रेशियस इस बात से दु:खी थे कि शताब्दियों तक धर्मांतरण करने के पश्चात् भी भारत में केवल साठ लाख ही कैथोलिक ईसाई हैं और हिन्दू बहुसंख्या में बने हुए हैं। उन्होंने अपने अनुयायियों को प्रोत्साहित करते हुए कहा कि अब से उनमें प्रत्येक व्यक्ति धर्मांतरण के कार्य के लिए स्वयं को धर्म-प्रचारक समझे। इसका अर्थ है कि देश की संपूर्ण जनता ईसाई धर्म में धर्मान्तरित हो जानी चाहिए, अर्थात् उनका वंश, परंपरागत धर्म, दर्शन, संस्कृति तथा जीवनपध्दति ध्वस्त हो जानी चाहिए, और उन्हें ईसाई धर्म के विश्वसंघ में विलीन हो जाना चाहिए। धर्म की जो कल्पना ईसाई प्रचारकों द्वारा प्रचारित की जाती है, वह सचमुच आश्चर्यकारक है। मैं एक बार धर्मप्रचारक से मिला। उसने मुझे इंग्लैंड के एक आर्क बिशप द्वारा लिखी गई एक पुस्तक दी और कहा कि इस पुस्तक द्वारा मुझे उनके कार्य की प्रकृति के विषय में स्पष्ट ज्ञान हो जाएगा। मैंने उसे पढ़ा। जब मैंने उसे पुस्तक लौटाई तो उसने अत्यंत उत्साहपूर्वक पूछा कि पुस्तक कैसी थी? मैंने उत्तर दिया- 'यदि तुम्हारा आर्क बिशप ऐसा है तो तुम क्या होगे?' वह इस बात से चौंका। मैंने उस पुस्तक के कुछ अंश उसे दिखाए जिनमें लिखा था कि ईश्वरप्राप्ति के लिए इतना ही पर्याप्त है कि प्रतिदिन दो बार प्रार्थना कि जाए और रविवार को गिरजाघर में जाया जाए। शेष समय में सभी प्रकार के शारीरिक आनंद एवं भोगों का सेवन करने में कोई हानि नहीं है। सत्य है कि ये शब्द उस महान संत ईसा के उपदेशों के पूर्ण विरुध्द हैं। लोकमान्य तिलक ने ईसा के महान शिष्य संत पॉल को अपने 'गीता रहस्य' में उध्दृत किया है। वह भी ईश्वर से कहता है- 'यदि मैं असत्य भाषण द्वारा तुम्हारी (ईश्वर की) महिमा की वृध्दि करता हूँ, तो वह पाप कैसे हो सकता है?' इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उनके इस वक्तव्य का वर्तमान ईसाई धर्मप्रचारकों ने अपने कुचक्रों को आगे बढ़ाने में पूर्ण उपयोग किया है। यह सच ही कहा गया है कि दुनिया में सच्चा ईसाई केवल एक ही हुआ है और क्रुस (cross) पर उसकी मृत्यु हुई।
 
ईसाई धार्मप्रचारकों की गतिविधियाँ केवल अधार्मिक ही नहीं, राष्ट्रविरोधी भी हैं। एक बार मैंने एक ईसाई धर्मप्रचारक से प्रश्न किया कि वे हमारे पवित्र ग्रंथ और देवी-देवताओं की निंदा क्यों करते हैं? उसने स्पष्ट उत्तार दिया- 'हमारा लक्ष्य है कि हिन्दू के हृदय से उसके धर्म के प्रति विश्वास को झटककर बाहर कर दिया जाये। जब उसका यह विश्वास उध्वस्त हो जाएगा, तब उसका राष्ट्रत्व भी नष्ट कर दिया जाएगा। उसके मतिष्क में एक रिक्तता उत्पन्न हो जाएगी, तब हमारे लिए उस रिक्तता को ईसाईयत से भरना सरल हो जाएगा।' कुछ वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश सरकार ने इन ईसाई धर्मप्रचारकों की गतिविधियों के संबंध में सूचना देने के लिए एक समिति गठित की थी। इस समिति के अधयक्ष श्री नियोगी उच्च न्यायालय के एक अति सम्माननीय अवकाशप्राप्त न्यायाधीश थे, जो किसी भी गुट या दल के व्यक्ति नहीं थे। समिति के सदस्यों ने संपूर्ण मध्यप्रदेश का दौरा किया और धर्मांतरित ईसाइयों, ईसाई धर्मप्रचारकों तथा अन्यान्य लोगों से भेंट की। वे अनेक गिरजाघरों में भी गए। अपनी व्यक्तिगत जाँच के आधार पर उन्होंने सन् 1957 में एक लंबा प्रतिनवेदन (report) प्रस्तुत किया। उस प्रतिनवेदन का सार इस प्रकार है- 'ईसाई धर्मप्रचारकों के सभी औदार्यपूर्ण कार्य उनकी धर्मांतरण की गतिविधियों को चलाने के लिए एक आवरण मात्र है। भोले-भोले लोगों को कभी त्रस्त करके और कभी प्रलोभन देकर वे अपना उपर्युक्त कार्य करते हैं। इन गतिविधियों के मूल में उनकी यह महत्वाकाँक्षा है कि उनकी संख्या की शक्ति के आधार पर अपने लिए एक अलग ईसाई राज्य बना लिया जाए, वे इसी एक उद्देश्य से करोड़ो रुपए व्यय कर रहे हैं।'
 
कुछ वर्षों पूर्व यूरोप में ईसाई पादरियों के एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में एक लघु पुस्तिका प्रकाशित की गई थी, जिसमें हमारे पूरे समुद्री तट पर और विंध्य एवं सातपुड़ा की पहाड़ी श्रेणियों के बीच इधर से उधर तक ईसाई-प्रभाव के केन्द्र आरंभ करने की विस्तृत योजना थी। वह दक्षिणी प्रायद्वीप को घेरकर उसे ईसाई वर्चस्व के अधीन लाने की योजना का प्रथम चरण था। फिर दूसरे प्रसार में हिमालय कीसंपूर्ण मेखला पर वर्चस्व करना था। कुछ दिनों पूर्व वृत्त-पत्र में एक भेद प्रकाशित हो गया था कि हमारे देश में ईसाई मिशन और मुस्लिम लीग में यह समझौता सन् 1942-44 के लगभग हुआ है कि दोनों को मिलकर काम करना चाहिए और आपस में देश का बँटवारा कर लेना चाहिए। इस बँटवारे के अनुसार पंजाब और मणिपुर के बीच गंगा का संपूर्ण मैदान मुसलमानों का तथा दक्षिणी प्रायद्वीप और हिमालय ईसाइयों का था। कुछ वर्ष पूर्व ईसाइयों का एक अखिल भारतीय सम्मेलन हुआ था, जिसमें उनसे भारत में ईसाई साम्राज्य स्थापित करने का संकल्प कराया गया था। हमारे केन्द्रीय मंत्रियों में से एक उन कार्यवाहियों को आशीर्वाद देने के लिए उपस्थित था। जीसस ने अपने अनुयायियों से कहा था कि अपना सब कुछ गरीब, अज्ञानी तथा दलित को दे डालने के लिए है, किंतु उसके अनुयाइयों ने व्यावहारिक रूप में यह कहा कि वे जहाँ भी गए 'रक्त देनेवाले' सिध्द न होकर 'रक्त चूसनेवाले' सिध्द हुए। जहाँ इन तथाकथित क्राइस्ट के अनुयाइयों ने अपने उपनिवेश बनाए हैं, उन सभी देशों की क्या गति हुई है? जहाँ कहीं उन्होंने कदम रखा, वहाँ के निवासियों को लुप्त कर दिया। क्या हम वे हृदयद्रावी कहानियाँ नहीं जानते कि किस प्रकार उन्होंने अमरीका, आस्ट्रेलिया और अफ्रीका के मूल निवासियों का समूल नाश किया। इतनी दूर जाने की क्या आवश्यकता है? क्या हमें ईसाई मिशनरियों का अपने देश का भीषण अत्याचारी इतिहास ज्ञात नहीं है कि उन्होंने गोवा तथा अन्य स्थानों पर किस तरह से लोगों का उत्पीड़न किया?
गोवा में ईसाई-बर्बरता
संत जेवियर के विषय में कहा जाता है कि उस समय वह अपने जीवन में परम आनन्द का अनुभव करता था, जब नवीन धर्मांतरित जन अपने पूर्व के देवी-देवताओं को पैरों से कुचलते थे, मंदिरों को ढहाते थे तथा अपने ही माता-पिता और वृध्द जनों को, जो हिन्दू रह जाते थे, अपमानित करते थे। अभी अति निकट काल में कांग्रेस शासन-काल के अंतर्गत केरल में सैंकड़ों प्राचीन पवित्र हिन्दू मंदिर अपवित्र किए गए तथा ईसाई शिल्प-भंजकों ने उनकी मूर्तियों को तोड़ा, इसमें शबरी मलाई का प्रसिध्द मंदिर भी है। ये वही धर्मांध ईसाई हैं, जिन्होंने कन्याकुमारी में विवेकानंद शिला पर स्थापित पट्टिका को तोड़ा था। इस प्रकार के हैं ये लोग, जो हमें यह उपदेश देने आते हैं कि ईसाई धर्म मानवता पर शांति, मंगल एवं मानवीय दयालुता की करेगा। यहाँ जब तक ईसाई इस प्रकार की गतिविधियों में लगे हुए हैं और अपने को ईसाई धर्म के प्रसार के लिए अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन का एजेंट मानते हैं, अपनी इस जन्मभूमि के प्रति सर्वोच्च निष्ठा अर्पण करने से तथा अपने पूर्वजों के पैतृक दाय एवं संस्कृति की सच्ची संतान के रूप में व्यवहार करने से इनकार करते हैं, तब तक वे यहाँ विदेशियों के रूप में रहेंगे और उनके साथ उसी प्रकार का व्यवहार किया जाएगा।
फिर भी ..
ईसाइयत पर संतुलित विषय प्रतिपादन का स्वागत -
ईसाइयत के विषय में उनकी धारणा में भी हिन्दू धर्म की उदारता झलकती थी और वे पूर्वाग्रह-रहित विचार प्रस्तुत करते थे। त्रिवेन्द्रम के श्री कृष्णानंद जी को 25 नवम्बर, 1953 को अपने अंग्रेजी पत्र में श्री गुरुजी लिखते हैं :-
आपकी ''The Myth of St. Thomas Exploded' नामक पुस्तक पढ़ी। आपने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह संपूर्णतया सिध्द कर दिया कि केरल में सेन्ट थॉमस का कार्य-कल्पित है और यह सत्य का कोई आधार नहीं। एक सच्चे इतिहास- अन्वेषक की भूमिका निभाते हुए ईसा के नाम से स्थानीय ईसाई मिशनरियों के प्रक्षोभक प्रचार के बावजूद आपने किसी की भी कटु आलोचना न करते हुए अत्यंत संतुलित भाषा में विषय की जो चर्चा की है, वह बहुत कठिन कार्य है। इसके लिए मैं आपका अभिनन्दन करता हूँ। इस सत्य के आविष्कार के बाद भी ईसाई मिशनरियों का हिन्दू समाज की बदनामी करने का तथा राष्ट्रीय भावना के विरुध्द विदेशी मत-प्रचार का कार्य बंद नहीं होगा। इसके लिए लोगों के पास जाकर उन्हें समझाते हुए उनका दैनिक जीवन कठिनाइयों से मुक्त कर अधिक सुकर बनाने की आवश्यकता है।

डॉ जॉन की मृत्यु पर संवेदना :-
श्री बी. राजगोपालाचारी, चेन्नै (24 दिसम्बर 1958)
अपने प्रवास के समय उज्जैन में मुझे अपने प्रिय मित्र डॉ. जॉन की आकस्मिक मृत्यु का समाचार मिला। इस हानि एवं दु:ख का प्रमाण शब्दातीत है। कुछ महीने पहले ही आपके यहाँ उनसे भेंट हुई थी। हमारे कार्य के लिए एक विश्वसनीय आधार देने वाला सुयोग्य मित्र मिलने से मैंने स्वयं को धन्यवाद भी दिया था। किन्तु दैव हमारे लिए अति कठोर बना, अत: नतमस्तक होते हुए यह आघात मन:शांति एवं धैर्य के साथ सहना होगा। आपने तो बचपन का साथी खोया अत: आपकी वेदना मै समझ सकता हूँ।
पूजा-पध्दति के भारतीयकरण से ज्यादा महत्तवपूर्ण है सम्पूर्ण चर्च का और ईसाई धर्म-प्रचारकों का भारतीयकरण। पूजा-पध्दति का भारतीयकरण तो धर्म परिवर्तन की गति को तीव्र करने के लिए रणनीति भी हो सकती है। पहले भी ऐसा हो चुका है। 16 वीं सदी में रॉबर्ट-डी. नोबिली नामक एक यूरोपीय धर्मप्रचारक आया। उसने ब्राह्मणों का भेष धारण कर लिया था। वह यज्ञोपवीत भी पहनता था। स्वयं को ईसाई ब्राह्मण कहता था। 'क्रिस्तवेद' का प्रचार भी करता था। यह सब उसने किया, जो भोले-भाले धर्मनिष्ठ हिन्दुओं को धर्मपरिवर्तन के जाल में फँसाने के लिए हो सकता है इस नये प्रयास के पीछे भी वही चाल हो। आवश्यकता तो यह है कि वे विदेशी धर्म-प्रचारकों को आमन्त्रित करना बंद करें। विदेशों से आर्थिक सहायता न लें और विदेशी सभ्यता और संस्कृति के प्रति अपनी भक्ति समाप्त करें। आखिर भारत में जहाँ-जहाँ ईसाई धर्म प्रचार सफल हुआ है, वहाँ-वहाँ पृथकतावादी आंदोलन क्यों खड़े होते हैं? इस प्रश्न का उत्तर अपने मन में खोजना होगा।