किन्तु स्वैराचार पर आधारित इस समाजवादी समाज संरचना को पूरी तरह काल्पनिक बताते हुए श्रीगुरुजी ने कहा था कि व्यक्ति-स्वातंत्र्य पर आधारित पूँजीवादी समाज संरचना की भाँति मार्क्सवादी सामाजिक संरचना की अवधारणा भी व्यक्ति को मात्र आर्थिक प्राणी समझती है और इसलिए उसकी मान्यता यह है कि राज्य द्वारा सभी व्यक्तियों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था हो जाने पर उनमें पारस्परिक संघर्ष नहीं होगा तथा सभी व्यक्ति आपसी सहयोग से कार्य करेंगे। फलस्वरूप राज्य का विलोप हो जाएगा।
इन दोनों कथित अवधारणाओं के विरुध्द आधारभूत प्रश्न यह खड़ा होता है कि जब व्यक्ति अपने स्वभाव और प्रकृति से अत्यन्त स्वार्थी, केवल अपना हित देखने वाला मात्र एक आर्थिक प्राणी है तब उसकी यह मूल प्रवृत्ति क्या उसे अन्य समाज-बन्धुओं के साथ स्नेह और सहयोग से जीवन-यापन करने देगी? इस विषय पर श्रीगुरुजी का स्पष्ट मत था कि ''विकार तृप्त होने पर बढ़ते ही जाते हैं। फलतः इससे स्वैराचार, व्यभिचार, अनैतिकता और शासकीय भ्रष्टाचार को अत्यधिक बढ़ावा मिलेगा तथा व्यक्ति एक संवेदनशील मानवीय प्राणी न रहकर यांत्रिक-व्यवस्था का एक कल-पुर्जा मात्र बन जाएगा।''....
पुन:, ''मनुष्य यदि पशु है तो समानता का निर्माण हो भी गया तो वह पुनः वैषम्य उत्पन्न कर देगा और इस प्रकार फिर क्रान्ति की आवश्यकता होगी। क्रान्ति, क्रान्ति, क्रान्ति अर्थात् सतत रक्त प्रवाह। उलट-पुलट कर संघर्ष ही उनका आधार है। ... अतः यह चित्र अपूर्ण ही नहीं, अपितु त्रुटिपूर्ण और तर्क की कसौटी पर खरा न उतर सकने वाला है।'' ईसाइयत की 20वीं श्ताब्दी के अन्तिम दशक के प्रारम्भ में इस मार्क्सवादी समाजवाद का अवसान हो जाने से श्रीगुरुजी के विश्लेषण की पुष्टि हो जाती है।
उपर्युक्त दोनों ही समाज संरचनायें अपनी घोर विफलता के फलस्वरूप अपने मूलाधारों को छोड़ने के लिए बाध्य हुई हैं और वे एक-दूसरे के निकट आती प्रतीत हो रही हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से भी उनकी अनिवार्यता नहीं है। इस स्थिति में प्रश्न उठता है कि व्यावहारिक समाज संरचना कौन और किस प्रकार की हो?