''हिन्दू राष्ट्र'' का शब्दप्रयोग किया कि प्रश्न उठाया जाता है कि अल्पसंख्यकों का क्या? अल्पसंख्यक के मायने अपने देशमें, मुसलमान और ईसाई ही होते हैं। इन प्रश्नकर्ताओं को पूछा जाना चाहिये कि अल्पसंख्यक का अर्थ क्या है? 99 प्रतिशत से भी अधिक संख्या में, यहाँ के मुसलमान तथा ईसाई इसी देश में पैदा हुए हैं। फिर ये अल्पसंख्यक कैसे? क्या मजहब या उपासना पध्दति बदलने से व्यक्ति अथवा व्यक्तियों का समूह अल्पसंख्य बन जाता है? वस्तुत:, इस देश में अल्पसंख्यक केवल पारसी और यहूदी ही हैं। वे अन्य देशों से निर्वासित होकर यहाँ आये हैं। किन्तु उनकी कोई समस्या नहीं है। उनकी कोई मांग भी नहीं है। मुसलमानों की माँगे हैं। इसका कारण यह दीखता है कि देशविभाजन की यानी पाकिस्तान निर्माण करने की मांग हमारे राजनीतिक नेताओं ने मान ली है, तो उनको लगता है कि उसी नीति को अपनाकर और भी कुछ मिल जाय। जिस प्रकार अलगाववाद का पोषण कर, और अपनी जनसंख्या में वृध्दि पाकर, उन्होंने पाकिस्तान प्राप्त किया, वैसे और पाकिस्तान वे निर्माण करना चाहते हैं। ईसाईयों को भी लगता है कि पाकिस्तान के तर्जपर वे भी ईसाई राज्य स्थापित कर सकेंगे। इसी हेतु उत्तर-पूर्व के ईसाईबहुल क्षेत्र में बगावत चल रही है। ये वैसे राजनीतिक समस्याएँ हैं, किन्तु इसका राष्ट्रीयता पर भी असर पड़ता है। श्री गुरुजी ने राष्ट्रीयता का मुद्दा केन्द्रस्थान पर रखकर मुसलमानों का विचार किया है। उनके शब्द ऐसे हैं:-
''जब हम कहते हैं कि यह हिन्दू राष्ट्र है, तो कुछ लोग तुरन्त प्रश्न करते हैं कि जो मुसलमान और ईसाई यहाँ रहते हैं, उनके विषय में आप क्या कहते हैं? क्या वे भी यहाँ उत्पन्न नहीं हुए? तथा यहीं उनका पालन-पोषण नहीं हुआ ? वे धर्म के परिवर्तन से ही परकीय कैसे हो गये? किन्तु निर्णायक बात तो यह है कि क्या उन्हें यह स्मरण है कि वे इस भूमि की संतान है? केवल हमारे ही स्मरण रखने से क्या लाभ? यह अनुभूति और स्मृति उन्होंने पोषित करनी चाहिए। हम इतने क्षुद्र नहीं हैं कि यह कहने लगे कि केवल पूजा का प्रकार बदल जाने से कोई व्यक्ति उस भूमि का पुत्र नहीं रहता। हमें ईश्वर को किसी नाम से पुकारने में आपत्ति नहीं है।
हम संघ के लोग पूर्णरूपेण हिन्दू हैं। इसलिए हममें प्रत्येक पंथ और सभी धार्मिक विश्वासों के प्रति सम्मान का भाव है, जो अन्य पंथों के प्रति असहिष्णु हैं, वह कभी भी हिन्दू नहीं हो सकता। किन्तु अब हमारे सामने प्रश्न यह है कि जो मुसलमान और ईसाई हो गये हैं उनका भाव क्या है? निस्संदेह वे इसी देश में पैदा हुए हैं। किन्तु क्या वे इसके प्रति प्रामाणिक हैं? इस मिट्टी के ऋणी हैं? क्या इस देश के प्रति, जहाँ उनका पालन-पोषण हुआ है, कृतज्ञ हैं? क्या वे अनुभव करते हैं कि वे इस देश और इसकी परम्पराओं की सन्तति हैं और इसकी सेवा करना उनके भाग्य की धन्यता है? क्या उसकी सेवा करना वे अपना कर्तव्य मानते हैं? नहीं। धर्मपरिवर्तन (पूजा के प्रकार परिवर्तन) के साथ ही उनकी राष्ट्र के प्रति प्रेम और भक्ति की भावना समाप्त हो गई है। मुसलमानों ने, उनको देश से आबध्द करने वाले सभी पूर्व पारम्परिक राष्ट्रीय सम्बन्ध-सूत्र काटकर अलग कर दिये हैं और मानसिक रूप से अपने को आक्रान्ताओं से एक कर लिया है। हम कहते हैं कि यह बात धर्म (पूजा का प्रकार) परिवर्तन की नहीं है वरन् राष्ट्रीय तादात्म्य में भी परिवर्तन आया है।''
एक अन्य स्थानपर श्री गुरुजी कहते हैं :-
''हमें यह स्पष्ट करना होगा कि यहाँ निवास करने वाले अहिन्दुओं का एक राष्ट्रधर्म अर्थात् राष्ट्रीय उत्तारदायित्व है, एक समाज-धर्म अर्थात् समाज के प्रति कर्तव्यभाव है, एक कुलधर्म अर्थात् अपने पूर्वजों के प्रति कर्तव्यभाव है, तथा केवल व्यक्तिगत धर्म, व्यक्तिगत निष्ठा का पंथ, अपनी आध्यात्मिक प्रेरणा के अनुरूप चुनने में वह स्वतंत्र हैं।''
(विचार नवनीत पृष्ठ. 119 से 132)
एक अन्य प्रश्न के उत्तार में श्री गुरुजी ने कहा, ''ईसाई, मुसलमान, हिन्दू सभी को साथ रहना चाहिए, यह भी केवल हिन्दू ही कहता है। मुसलमान या ईसाई नहीं। किसी उपासना पध्दति से हमारा द्वेष नहीं है। परन्तु राष्ट्र के विरोध में जो भी खड़ा होगा, वह फिर प्रत्यक्ष अपना पुत्र ही क्यों न हों, तो अहिल्याबाई या छत्रपति शिवाजी महाराज के समान व्यवहार का आदर्श हमारे यहाँ है। तब राष्ट्रविरोधी यदि अन्य मतावलम्बी हुआ तो उसके साथ भी वैसा ही व्यवहार करेंगे, यह कहने में हमें हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए।''
(ठाणा वर्ग में प्रश्नोत्तार)
उपरिलिखित विवेचन से श्री गुरुजी की 'राष्ट्र' के सम्बन्ध में कौन सी अवधारणा है यह स्पष्ट होगी। आज अमरीका में 'हम कौन हैं' (Who are we) इस सॅम्युअल हंटिंग्डन की पुस्तक पर विवाद चल रहा है। प्रा. हंटिग्डन का प्रतिपादन यह है कि 'ऍग्लों प्रॉटेस्टेंट कल्चर' यही अमरीकन राष्ट्रीयता की आधारशिला है। उसको अमरीका कभी नहीं छोडेग़ा। हमने भी यह मानना चाहिए कि हिन्दू संस्कृति हमारे राष्ट्रजीवन की आधारशिला है, उसको हमने कभी नहीं छोड़नी चाहिए। उसको हम छोड़ेंगे, तो हमारी अस्मिता और पहचान ही समाप्त हो जायेगी।