बौध्द मत सनातन-परम्परा का अंग
श्रीगुरुजी (हिंदी)   26-Oct-2017
जो अपना महान चिरंजीवी सिध्दान्तमय और आचारमय धर्म है; वह सनातन धर्म है। अपनी इस महान परम्परा में उत्पन्न हुए बौध्द, जैन आदि सभी पंथों का अन्तर्भाव होता है। जयदेव कवि ने कहा कि हिंसात्मक यज्ञ का भगवान बुध्द ने निषेध किया है। (विहिप प्रथम सम्मेलन, प्रयाग, जनवरी 1966) महात्मा गौतम बुध्द को कौन नहीं जानता? सांसारिक दु:खों से मुक्ति प्राप्त करने की खोज में कष्ट सहन करते हुए प्राणिमात्र की पीड़ा दूर करने हेतु उन्होंने 'सुधार-आंदोलन' किया। वह जगत् भर में फैला। परंतु अंत में वह एक स्वतंत्र संप्रदाय के रूप में परिणत होकर यहाँ की परम्परागत ज्ञानधारा से नाता तोड़ बैठा। यहाँ के प्राचीनतम वैदिक ज्ञान को उसने श्रध्दा से नहीं देखा। परिणामस्वरूप हम देखते हैं कि इस धारा को छोड़कर उसकी क्या दशा हुई। जहाँ पर प्राचीन संस्कृति की धारा प्रवाहित थी, वहाँ पर तो वह, सरिता का प्रवाह अधिक समय तक रोक सकने में असमर्थ होकर नष्ट हो गया। परंतु, जहाँ संस्कृति की धारा नहीं थी, भारत से दूर उन प्रदेशों में तो बौध्द धर्म चल सका। परन्तु अपने ही जन्म-स्थान भारतवर्ष में नष्ट हो गया। इसी प्रकार दूसरों का आदर्श लेकर अपनी संस्कृति की जीवनधारा से पृथक होकर चलने वाले जो प्रयत्न होंगे, वे अधिक देर तक ठहर नहीं सकेंगे। बाह्यादर्श प्रकृति (Extra-Territorial Idealism) के आधार पर नवीन निर्माण करने-हेतु हम चाहे जितना ही ढोल बजायें, वह फटे बिना नहीं रहेगा। वास्तविकता प्रकट हो ही जाएगी। हमारी संस्कृति की अखण्ड धारा भूले-भटके को अवश्य ही राह पर लायेगी। (दिल्ली, जून'47)
 
बुध्द के उत्ताराधिकारी लोगों को यह अनुभव हुआ कि इसके कारण मनुष्य में सद्गुणों का विकास होता है। इस आकर्षण के कारण ही उन्होंने बौध्द मत का मंडन करने वाले विद्वानों को आदर से देखा। अपने देश से गौतम बुध्द का एक शिष्य तिब्बत, चीन, जापान आदि देशों में गया। उसे भगवान् मानकर उसकी मूर्ति स्थापित कर पूजा की गई। वह बौध्द मत का बहुत बड़ा पण्डित था, बोलने में चतुर था, इसलिए उसकी पूजा नहीं हुई; अत्यन्त त्यागमय, अत्यन्त चरित्रसम्पन्न जीवन जीने वाला, सब पर प्रेम करने वाले के रूप में उपस्थित होने के कारण, उसके प्रति इतना आदर लोगों के हृदय में प्रकट हुआ। यह अपना वैशिष्ट्य रहा है।
- संघ शिक्षा वर्ग भाषण - 1959 (खण्ड 3, पृष्ठ 163)
 
कुछ समय पूर्व अपने कुछ बन्धुओं ने बौध्द मत की दीक्षा ली। अब देखा जाय तो बौध्द मत अपना ही है। पूजा के संकल्प का उच्चारण करते हुए 'बौध्दावतारे' कहते हैं। उनको भगवान् का अवतार मानते हैं। उनके द्वारा दिया श्रेष्ठ संदेश अनुकरणीय है। फिर यदि कोई बौध्दमत ग्रहण करता है, तो वह प्रसन्नता की बात होनी चाहिए। लेकिन दीक्षा-ग्रहण कार्यक्रम में जो भाषण हुए, वे मन को कष्ट पहुँचाने वाले हैं। वहाँ कहा गया है कि बौध्दमत स्वीकार करने के कारण चीन, जापान आदि देशों में जो बुध्द के अनुयायी हैं, उनसे अपना नजदीकी सम्बन्ध हो गया है। अब हिन्दुस्थान से अपना सम्बन्ध नहीं रहा। हमें उन नये सम्बन्धियों के सहारे हिन्दुस्थान में अपना प्रभुत्व स्थापित करना है। अब कहाँ भगवान् बुध्द की करुणा और कहाँ परकीयों के सहारे अपने देश को गुलाम करने की उत्सुकता । विच्छिन्नता का संकट इतना गहरा है। इसी प्रकार की बातें पहले भी हुई हैं, जिनका परिणाम गुलामी के रूप में अपने को भुगतना पड़ा।
- विजयवाड़ा भाषण-1956 (खण्ड 3, पृष्ठ 216-17)
 
9 अगस्त 1963 को 'गौरव विशेषांक' में डॉ. अम्बेडकर की 73 वीं जयन्ती पर प्रकाशित लेख में श्री गुरुजी कहते हैं - 'श्रीमत् स्वामी विवेकानन्द ने, श्रीमत् शंकराचार्य की कुशाग्र बुध्दि तथा भगवान् बुध्द के कारुणिक विशाल हृदय का समन्वय कर भारत का सच्चा उध्दार हो सकेगा, ऐसा मार्गदर्शन किया है। कहना चाहिए कि बौध्दमत को स्वीकार तथा पुरस्कार कर, इस मार्गदर्शन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा पूरा करने के कार्य को डॉ. अम्बेडकर द्वारा तेज गति दी गई है।
 
उनकी विवेचना तथा कुशाग्र बुध्दि को तत्त्वज्ञान की दृष्टि से बौध्दमत की त्रुटियाँ भी दिखती थीं, इसका उन्होंने उल्लेख भी किया है। परन्तु व्यवहार की समानता, शुचिता तथा परस्पर सम्बन्ध की कारुण्यपूर्ण स्नेहमयता, इन सारे गुणों से प्राप्त होने वाली मानवसेवा की विशुध्द प्रेरणा, बौध्दमत की श्रध्दा से उत्पन्न होने वाले ये लाभ, राष्ट्र तथा मानवता की उन्नति के लिए अनिवार्य हैं, यह जानकर हो सकता है कि उन्होंने आग्रह से ऐसे मत का पुरस्कार किया हो।
 
पूर्वकाल में समाज-सुधार के लिए तथा धर्म का स्वरूप विशुध्द करने के लिए, न कि पृथक होने के लिए, भगवान बुध्द ने तात्कालिक समाज-धारणाओं की आलोचना की तथा सद्य:स्थिति में भी डॉ. अम्बेडकर जी ने समाज की भलाई के लिए, धर्म के हित के लिए, चिरंजीवी समाज निर्दोष तथा सुदृढ़ होने के लिए कार्य किया। उनका यह कार्य समाज से पृथक होकर भिन्न पंथ-निर्माण करने के लिए नहीं है, ऐसी मेरी श्रध्दा है। इसलिए भगवान् बुध्द के इस युग के उत्ताराधिकारी के नाते, उनकी पवित्र स्मृति का मैं अन्त:करण पूर्वक अभिवादन करता हूँ।
 
- पत्ररूप - वर्णन
स्वामी रंगनाथानंदजी, नई दिल्ली, (27-4-1959)
जपान में आपके द्वारा दिए गए भाषणों की पुस्तिकाएँ प्राप्त हुईं। पढ़ने पर मैं स्वयं उद्बोधित हुआ हूँ। आज भारत में भगवान् बुध्द का नाम ऐहिक एवं राजनीतिक स्वार्थ-हेतु उपयोग में लाया जा रहा है। ऐसे समय में उनके विषय में सुस्पष्ट जानकारी यहाँ आवश्यक है। उनका तीव्र वैराग्य मानवता का आध्यात्मिक स्तर उठाने के लिए सर्वस्वार्पण, विशुध्द प्रेम, सहकार्य, दया, परस्पर सहायता, स्वार्थ-त्याग व निरपेक्ष सेवाभाव तथा सनातन धर्म के अधिष्ठान पर इन सब सद्गुणों का विकसित आविष्कार भारत में सबके सम्मुख आग्रहपूर्वक प्रतिपादन और प्रचार करने की आवश्यकता है ...
 
श्री प्रभुलाल, रंगून (बर्मा), 10-11-1955
बौध्दमत अपने ही धर्म का एक अंग है। वेदों का साक्षात प्रमाण न मानने से उनका भारतीयत्व नष्ट नहीं होता। अन्य भी वेद न मानने वाले, किन्तु विशाल धर्म, हिन्दू धर्म के सात्विक भाव को लेकर निराकार या शून्य की उपासना करने वाले मत यहाँ प्रचलित हैं ही। वैसा बौध्दमत भी है।
 
जैन मत के विषय में जैन पंथ यज्ञ संस्था आदि मान्यताओं के विपरीत निरीश्वरवाद या निराकार की उपासना को लेकर चलने वाला है, किन्तु यह हिन्दू समाज से अलग नहीं है। समय-समय पर अपने समाज में हुई कमी को हटाने के लिए ऐसे अनेक पंथ निर्मित हुए हैं। उस समय की यही माँग थी।
 
- विजयादशमी भाषण, नागपुर, 1956
एक समय मेरे सामने कुछ जैन बन्धुओं ने प्रश्न रखा कि हम लोग अपने आपको हिन्दु कैसे माने? हमारा तो अलग जैनानुशासन है। मैंने कहा,'भाई! मैं इस बारे में बोलने का अधिकारी नहीं हूँ, मैं मुनिजी से जाकर पूछ लेता हूँ।' मुनिजी के पास जाकर मैंने कहा कि 'ऐसा कुछ लोग बोलते हैं, जैन भगवान् का आदेश क्या है, यह बताइये?' उन्होंने कहा,'वेदों में सब प्रकार का ज्ञान दिया है, उपासनायें दी हैं। कुछ उपासनायें तो रजोगुणी मनुष्यों के अनुकूल हैं, कुछ तमोगुणी मनुष्यों के। वेदमाता ने किसी का भी निषेध नही किया है। परम कारुणिक वेदमाता ने जो केवल अत्यन्त श्रेष्ठ सत्वगुणी बन सकते हैं, उनके लिए मार्ग बताया है। बस उतने ही सिध्दान्तों को लेकर जैन संप्रदाय चला है। वेद की परम्परा और उसी के तत्त्वज्ञान के आधारपर अपने हिन्दू समाज के जीवन को शुध्द सात्विक रूप से परिपुष्ट करने के लिए यह जैनानुशासन चलता है। अन्त में उन्होंने कहा,'जो अपने को हिन्दू नहीं कहेगा, वह जैन कैसे रहेगा? इतने बड़े श्रेष्ठ आत्मानुभूति सम्पन्न महापुरुष के शब्द मेरे अंत:करण पर अंकित हो गये। -(विहिप, प्रथम सम्मेलन, प्रयाग, 24 जनवरी 1966)
 
विनाशमार्ग पर क्यों?
मैं मुंबई गया था। उस समय एक साप्ताहिक में जैन बंधुओं से इस बात की अपील करते हुए लेख प्रकाशित हुआ था कि आगामी जनगणना में जैन स्वयं को 'हिन्दू' न लिखायें, केवल 'जैन' लिखायें। उस लेख में यह प्रतिपादित किया गया है कि हिन्दू धर्म में ब्राह्मणों का वर्चस्व है, इस कारण जैनियों पर उनका प्रभुत्व स्थापित हो जाएगा। इसके बाद मेरी भेंट अपने जैन पंथ के एक महान नेता से हुई। मैंने उनका ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट किया। उन जैन मुनिजी ने भी मुझसे कहा कि जो लोग जैनियों के हिन्दू होने से इन्कार करते हैं, वे वास्तव में समग्र समाज का विनाश करने की बात कर रहे हैं। - (विहिप, असम, जोरहाट, 1970)
 
पिछले वर्ष (1971) जैन मतावलंबी तेरापंथी संप्रदाय के प्रमुख आचार्य श्री तुलसी जी चातुर्मास के लिए मध्य प्रदेश के रायपुर नामक शहर में पधारे थे। वहाँ लोगों ने उनके स्वागत में बड़ा उत्साह प्रकट किया। सब लोगों को प्रेरणा देने वाले उनके अच्छे प्रवचन हुए। प्रवचनों के दौरान राम कथा का एक प्रसंग आया। यह कथा 'उत्तर-रामचरित' में भी है। रावणवध के बाद रामचन्द्रजी, सीताजी और लक्ष्मणजी के साथ अयोध्या लौट आए। राज्याभिषेक भी हो गया। तब गुप्तचरों में से किसी ने रामचन्द्रजी को बताया-'अयोध्या के कुछ नागरिकों के अनुसार सीताजी रावण के कारागार अशोक वाटिका में कुछ दिन रही हैं। यद्यपि आपने अग्निपरीक्षा कर ली है परंतु लोकापवाद प्रचलित है कि वह अग्निपरीक्षा उनके सामने नहीं हुई, जबकि आपने सीताजी को सिंहासन पर रानी के नाते बैठाया है।' इस कथा का उल्लेख जैन-मतानुसार लिखित रामायण में किया गया है। उसमें चाहे जो लिखा हो, परन्तु इतनी बात मैं जानता हूँ कि रामचन्द्रजी का चरित्र 'शतकोटीप्रविस्तरम्' कहा गया है। इसमें से वाल्मीकि रामायण के चौबीस हजार श्लोक हमें विदित हैं। शेष विशाल रामकथा अन्यत्र कई जगह गायी गई है। अपने-अपने पहलू से रामचरित्र का गायन सबने किया है। उसमें कहीं कोई दुष्टबुध्दि है, ऐसा मानना योग्य नहीं। जैन मत के अनुसार जो रामायण है, उसमें लिखा है कि रामचन्द्रजी ने सोचा कि सीताजी की अग्नि-परीक्षा करवानी चाहिए। बड़ी चिता रचाई गयी। उस पर सीताजी को बिठाकर उसमें अग्नि दी गयी। सीताजी के तेज से अग्नि शान्त और शीतल हो गई। ऊपर बड़ा सुन्दर कमल खिलकर आया।
 
उस पर सीताजी बैठी थीं। सब लोगों ने वह दृश्य देखा।अब इस प्रसंग को लेकर राजनीति में काम करने वाले लागों ने हो-हल्ला मचाया। मैंने इस संबंध में ऐसा सुना है कि तेरापंथी व्यापारियों में से राजनीति में काम करने वालों को पर्याप्त धन न मिलने के कारण वे क्रुध्द हो गये थे। उन्होंने सोचा कि इन लोगों को अच्छा पाठ पढ़ाया जाए। उन्होंने कहना प्रारंभ किया कि आचार्य तुलसीजी ने सीताजी की बदनामी की है। (वैसे उन्होंने अपने 'अग्नि परीक्षा' नामक काव्य में गुप्तचरों द्वारा भगवान् राम को सूचित किए गए लोकापवाद-प्रसंग का उल्लेख किया है)।
 
आचार्य तुलसी को बाध्य होकर चार्तुमास का समय पूर्ण होने से पूर्व ही रायपुर छोड़कर जाना पड़ा। इस वर्ष (1972) भी जब राजस्थान के चुरू शहर में आचार्य तुलसी के चार्तुमास का कार्यक्रम होना तय हुआ, तब यहाँ उनके विरुध्द भी उत्तेजना फैलाई गयी। दीवारों पर ऐसे भद्दे-भद्दे शब्द लिखे गये, जिन्हें देखकर कोई कह नहीं सकता कि यह सज्जनों का देश है, सर्व-संग्राहक हिन्दू संस्कृति के पानलकर्ताओं का देश है। -(गुजरात विहिप सम्मेलन, सिध्दपुर, 27 अक्टूबर 1972)
 
- राजस्थान जैन सभा के मंत्री श्री रतनलाल जैन को 20 अक्टूबर 1961 को श्री गुरुजी लिखते हैं
- .. भगवान् महावीर जी के शुध्द, सात्विक जीवन का संदेश, आज तम-प्रधान रजोगुण-युक्त अतएव स्वार्थी मानव-जीवन में इष्ट परिवर्तन लाने के लिए अत्यावश्यक है। अत: वैसा पवित्र जीवन व्यतीत करने वालों का समुदाय खड़ा होकर, उसके द्वारा उनका संदेश प्रसार करने में संलग्न होना लाभदायक होने के कारण आपका यह कार्य अतीव अभिनंदनीय है।