पूजनीय गुरुजी के जून सन् १९७३ में दिव्यलोकगमन के पश्चात् उस समय उपलब्ध उनके विचारों के संकलन एवं प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ हुआ और 'श्री गुरुजी-समग्र दर्शन' माला का भाग-६ सर्वप्रथम मुद्रित हुआ। सन् १९७४ के वर्षप्रतिपदा से प्रांत-प्रांतों में उसके विमोचन के कार्यक्रम आयोजित हुए। इंदौर के इस कार्यक्रम में पूजनीय गुरुजी के ज्येष्ठ गुरुभाई स्वामी अमूर्तानन्द जी के सान्निध्य-लाभ का सौभाग्य हम लोगों को प्राप्त हुआ। पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम के उपरांत अनौपचारिक बातचीत में मैंने पूजनीय स्वामीजी से पूछा कि पूजनीय गुरुजी की आध्यात्मिक उपलब्धि क्या थी? पहले तो उन्होंने बताने से मना किया, किन्तु मेरे अधिक आग्रह करने पर कि पूजनीय गुरुजी की अध्यात्म साधाना के आप ही प्रेरक, कारक तथा दर्शक रहे हैं और इसलिए आप नहीं बतायेंगे तो पूजनीय गुरुजी का यह पहलू अनावृत ही रह जाएगा। क्या यह उचित होगा?
चिकित्सकों की परेशानी
मेरे इस आग्रह के पश्चात् उन्होंने कहा कि पूजनीय गुरुजी ने अपनी आत्मा को शरीर के किसी भाग से अलग कर लेने की क्षमता प्राप्त कर ली थी और इसलिए शरीर के किसी भाग में हुई व्याधि की पीड़ा इच्छा होने पर उन्हें सता नहीं पाती थी। तुरन्त मुझे महर्षि रमण का स्मरण हो आया। महर्षि रमण को भी कर्क-रोग हो गया था और वे तमिलनाडु स्थित अरुणाचलम् से बाहर नहीं जाते थे। अत: चेन्नै शासन ने वहीं अस्थायी शल्यक्रिया कक्ष खड़ा किया व चेन्नै से ख्यातनाम शल्य चिकित्सकों को वहाँ भेजा। जब शल्यक्रिया प्रारंभ करने का समय आया, तब चिकित्सकों ने महर्षि रमण को मूर्च्छावस्था में ले जाना चाहा, जिसे करने से उन्होंने मना कर दिया और बिना संज्ञा-हरक के ही शल्यक्रिया करने के लिए कहा। शल्य चिकित्सक शल्यक्रिया करने में जुट गए, किन्तु उनके सामने एक समस्या खड़ी हो गई। जब कर्क रोग की गांठ को काटते हैं, तब तो मृत कोशिकाएँ होती हैं, उन्हें काटने पर तो वेदना नहीं होती, किन्तु जब जीवित कोशिकाओं से शल्य स्पर्श करता है, तब वेदना से मुँह से सिसकारी या चीख निकलती है या मूर्च्छावस्था में शरीर में हलचल होती है जिससे चिकित्सकों को ज्ञात हो जाता है कि वहाँ जीवित कोशिका है। किन्तु महर्षि रमण के मुँह से सिसकारी भी नहीं निकल रही थी। अत: डाक्टरों की परेशानी यह थी कि पता कैसे लगे कि कौन-सी कोशिकाएँ मृत हैं और कौन सी जीवित?
असंपृक्त
चिकित्सकों ने अपनी परेशानी महर्षि रमण के सामने रखी तो उन्होंने कहा : 'जिस शरीर पर तुम शल्यक्रिया कर रहे हो, वह मैं नहीं हूँ। मैंने अपने आपको शरीर से असंपृक्त कर रखा है और वेदना तो शरीर को होती है।' चिकित्सकों के अनुनय करने पर यह समझौता हुआ कि जब जीवित कोशिकाओं को शल्य स्पर्श करे तो वे अंगुलि उठाकर संकेत कर दें। इस प्रकार करने पर ही शल्यक्रिया पूरी हो सकी थी। दूसरी घटना रामकृष्ण मिशन के स्वामी तुरीयानन्द जी की है। उनकी पीठ में दुष्ट व्रण (कारबंकल) हो गया था और उसकी शल्यक्रिया करने का निश्चय हुआ। दूसरे दिन जब उन्हें मूर्च्छावस्था में ले जाने की तैयारी हुई तब स्वामी जी ने कहा कि मूर्च्छित किए बिना ही शल्यचिकित्सा करो। सारी क्रिया ठीक तरह से सम्पन्न हुई। दूसरे दिन जब घाव को साफ करने के लिए डाक्टर गए तो पाया कि एक छोटा-सा टुकड़ा बच गया है। उन्होंने सोचा कि निकाल दें। पर ज्यों ही निकाला तो स्वामी जी के मुंह से जोर की चीख निकली। डाक्टर हतप्रभ हो गए। उन्होंने कहा : 'स्वामी जी कल सारा व्रण निकाला, तब तो आप शान्त रहे, आज छोटा-सा बचा टुकड़ा निकालने पर चीख क्यों पड़े?' तब स्वामी जी ने उत्तर दिया कि 'पहले बताते तो मैं अपने-आप को शरीर के उस भाग से समेट लेता। कल मैंने वैसा ही किया था इसलिए वेदना नहीं हुई।'
डा. परांजपे की भूल
पूजनीय गुरुजी के कर्क की गठान पर जब शल्यक्रिया हुई तब उन्हें मूर्च्छित तो अवश्य किया गया, किन्तु जैसे ही संज्ञा-हरक का प्रभाव समाप्त होकर वे होश में आए, त्यों ही कमरे से बाहर निकलकर आस-पास के कमरों में जाकर रोगियों का हालचाल पूछने लगे। शल्यचिकित्सा के पश्चात् पूजनीय गुरुजी ने नागपुर में मा. बाबासाहब घटाटे के यहाँ कुछ दिन विश्राम किया, जहाँ घाव की साफ-सफाई करने के लिए डा. रामदास परांजपे रोज जाया करते थे। डा. परांजपे साफ-सफाई करते और उधर पूजनीय गुरुजी के मुँह से हास्यविनोद की फुलझड़ियाँ झड़तीं और चारों ओर प्रसन्नता का वातावरण बन जाता। एक दिन डा. परांजपे के हाथ से अनजाने में एक भूल हो गई। रक्त से सने कपास के टुकड़े को निकालते समय उस टुकड़े के स्थान पर मांस का खंड चिमटी की पकड़ में आ गया और रक्त बह चला। यह देखकर सभी के मुँह से सीत्कार फूट पड़ा। डा. परांजपे का मन भी ग्लानि से भर गया और वे अपनी प्रमाद के लिए पूजनीय गुरुजी से क्षमायाचना करने लगे।
असहनीय पीड़ा में भी प्रफुल्लता
डा. परांजपे की भावनाओं को सहलाते हुए श्री गुरुजी ने बड़े शांत चित्त से उत्तर दिया : 'आप व्यर्थ ही मन में कष्ट मान रहे हैं। कपास के टुकड़े और मांस में मेरे लिए कोई अंतर नहीं है। मेरे लिए दोनों समान हैं। जब आप घाव को साफ करते हैं, तब तक मेरा मन शरीर से अलग रहता है और जब मन शरीर से अलग रहता है तब शारीरिक पीड़ा का अनुभव नहीं होता।' डा. श्रीधर भास्कर वर्णेकर लिखते हैं : 'यह सब जानते हैं कि कर्करोग की शल्यक्रिया के बाद भी गुरुजी के शरीर में बहुत जलन रहा करती थी और कष्ट भी अपार था, पर उनसे बात करते समय कोई भी अनुमान नहीं लगा पाता था कि उन्हें इतनी अधिक पीड़ा है। प्रफुल्ल मुखाकृति की छाप लेकर ही गुरुजी के पास से लोग लौटा करते।'
आगे चलकर अकड़ी बाँह की अग्निदग्धा चिकित्सा पुणे में कराई गई। उसे कराते समय उन्होंने संज्ञा-शून्य करने से मना कर दिया। जब अग्नि से दाग दिया जाता था तब मांस जलने की 'चर्रर्' की आवाज आती थी, पूजनीय गुरुजी के निजी सचिव डा. आबाजी थत्ते तक उस दृश्य को देख नहीं सके और कमरे से बाहर चले गए, किन्तु पूजनीय गुरुजी ने शांतचित्त से सब सहा।
रोग का कारण
पूजनीय गुरुजी को कर्करोग होने का क्या कारण रहा होगा? इस संबंध में पूजनीय गुरुजी के साथ एक वार्तालाप का स्मरण होता है। अनौपचारिक बातचीत में उनसे प्राणायाम के संबंध में चर्चा चल पड़ी। उन्होंने बताया कि 'प्राणायाम किसी योग्य गुरु के निर्देशन में ही किया जाना चाहिए। प्राणायाम की क्रिया में पूरक (श्वास अंदर लेना) और रेचक (श्वास बाहर छोड़ना) तो विशेष हानिकारक नहीं हैं किन्तु कुंभक (श्वास रोके रखना) अतीव सावधानी की अपेक्षा रखता है। ठीक विधि से प्राणायाम क्रिया करने पर प्राण नियंत्रित होता है, किन्तु यदि उसमें गड़बड़ हुई तो प्राण नियंत्रित होने के स्थान पर कुपित हो सकता है।' और यह कहते हुए उन्होंने अपने खुद का अनुभव सुनाया। उन्होंने कहा : 'मैं रोज संध्या करते समय प्राणायाम भी किया करता था। एक दिन कक्ष का द्वार केवल भिड़ा हुआ था। मैं जब कुंभक की स्थिति में था तब शरीर किसी भी प्रकार का धक्का सहन करने की स्थिति में नहीं था। उसी समय मेरी चार वर्ष की नातिन अंदर आई और मेरी पीठ पर लद गई। उसके कारण छाती में बायीं ओर जो दर्द शुरू हुआ वह आज तक नहीं गया।' आगे चलकर हमने देखा कि उसी स्थान पर कर्क की गठान उभरी।
साक्षात्कार
पूजनीय गुरुजी को साक्षात्कार हुआ था या नहीं, इस संबंधा में महाराष्ट्र के एक संत श्री दत्ता बाळ ने श्रध्दांजलि सभा में कहा था : 'मेरे व्याख्यानों का कार्यक्रम जब नागपुर में आयोजित हुआ, तब मैंने देखा कि एक दाढ़ी-मूँछ व लंबे केशवाले सज्जन कार्यक्रम में आए हैं। मैंने अपने साथियों से पूछा कि वे कौन हैं? तब बताया गया कि वे गुरुजी गोलवलकर हैं। मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि मेरे मन में उनके प्रति कोई आदर का भाव नहीं था। किन्तु उन्हें अपने कार्यक्रम में देखकर मुझे कौतूहल हुआ और दूसरे दिन उनसे मिलने डा. हेडगेवार भवन चला गया। उनसे एकांत में वार्तालाप में मैंने योग संबंधी कुछ प्रश्न पूछे। मैंने अनुभव किया कि वे जो उत्तर देते थे, वे एक स्तर से आगे के रहते थे। इस प्रकार एक-एक सीढ़ी हम ऊपर उठते गए। अंत में मैंने उनसे एक प्रश्न पूछ लिया : 'गुरुजी, क्या आपको भगवान के दर्शन हुए हैं?' उन्होंने मेरी ओर कुछ देर तक देखा और मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा कि 'एक शर्त पर ही बताता हूँ कि किसी से कहोगे नहीं।' मेरे हाँ कहने पर उन्होंने कहा : ''हाँ, हुआ है। संघ पर लगे प्रतिबंध के समय जब मैं सिवनी जेल में था और खाट पर बैठे हुए सारे घटनाक्रम के बारे में चिंतित हो रहा था, तब मुझे लगा कि कोई मेरे कंधो को दबा रहा है। जब पलटकर ऊपर देखा तो साक्षात् जगज्जननी-माँ सामने खड़ी थी। उसने आश्वस्त करते हुए कहा - 'सब ठीक होगा।' उसी बलबूते पर तो आगे के सारे संकटों का मैं दृढ़ता के साथ सामना कर सका।'' और यह सुनाते हुए श्री दत्ता बाळ ने कहा : 'चूंकि अब वे दिवंगत हो गए हैं, इसलिए उनको दिए गए अभिवचन से मैं मुक्त हो गया हूँ और यह बात आप सबको बता रहा हूँ।' ऐसे एक अध्यात्म-शक्तिसम्पन्न व्यक्ति के दर्शन, निर्देशन, सान्निध्य और नेतृत्व का लाभ हम सबको मिल सका, इसे अपने पूर्वजन्मों के सुकृत का ही परिणाम मानना होगा।