एक अनौपचारिक बातचीत (गुरुजी समग्र खण्ड 9, पृष्ठ 25) में वे दृढ़ता से घोषित करते हैं-हम हिन्दुओं को सिख, बौध्द, जैन आदि पंथों में करके नहीं देखते हैं। हमारा मानना है कि देश में निर्माण हुए ईश्वर-प्राप्ति के बौध्द, जैन, सिख, शैव, वैष्णव, वीरशैव आदि सभी पंथ व्यापक हिन्दू शब्द में अंतर्भूत हैं।
'न्यूयार्क टाइम्स' के संवाददाता श्री लूकस के साथ 13 मई 1966 को हैदराबाद में सम्पन्न वार्ता में श्री गुरुजी रेखांकित करते हैं-हमारी दृष्टि में सिख हिन्दू ही हैं। कई वर्ष पहले तक सिखों और असिख हिन्दुओं में विवाह-सम्बन्ध भी होते थे। तीसरी शक्ति की उपस्थित से ही इस प्रकार के झगड़े खड़े हुए हैं। वास्तव में आज भी इनका सम्प्रदाय-जीवन उन्हीं विचारों एवं अनुभूतियों से परिव्याप्त है, जिनसे कि शेष हिन्दुओं का। अभी वर्तमान काल में ही शताब्दी पूर्व प्रत्येक हिन्दू परिवार से एक पुत्र 'सिख' नाम धारण करने वाला हुआ करता था। हमारे परस्पर रक्त-सम्बन्धा आज तक चले आ रहे हैं। यह तो केवल राजनैतिक आकाँक्षाओं का विष है, जिसने इस विघटन के दैत्य को खड़ा किया है अन्यथा वह तो हिन्दुत्व की निष्ठा-सम्पन्न एवं पराक्रमी भुजा थी।
गुरुपूर्णिमा पर एक बौध्दिक (खण्ड 5, पृष्ठ 303) में बोध कराते हैं-क्रूर एवं आततायी आक्रमण से संरक्षण के लिए क्षात्रवृत्ति का अंगीकार करने वाले शस्त्रधारी और पराक्रमी, एक से बढ़कर एक, श्रध्दास्पद गुरु हिन्दू समाज में हुए। उनमें दसवें गुरु गोविन्द सिंह जी थे। उन्होंने गुरु-परंपरा पर विराम लगाया; क्योंकि धर्मभक्त देशभक्त तथा समर्पण-हेतु सिध्द लोग हर बार गुरुपद पर आएंगे ही, यह कहना कठिन है। इसी विचार से उन्होंने आदेश दिया कि इसके बाद श्री गुरु ग्रंथ साहब को गुरु माना जाए। उसमें दिये गये ज्ञान का श्रेष्ठ संकलन उसकी स्फूर्तिप्रदता, तेजस्विता क्षात्रधर्म, ब्रह्म तेज इन सभी का अक्षय आदर्श दृष्टि के सम्मुख हो। किसी शाश्वत मार्गदर्शन के लिए किसी व्यक्ति पर अवलम्बित न रहे, यह हिन्दू परम्परा का ही विचार है। संघ में भी यही विचार किया गया। 'हिन्दू' नाम जो हमारे सर्वव्यापक धर्म का बोध कराता था, आज अप्रतिष्ठा को प्राप्त हुआ है। लोग अपने को हिन्दू कहने में लज्जा का अनुभव करने लगे हैं। इस प्रकार वह स्वर्णिम सूत्र, जिसमें ये सभी विविञ् आभायुक्त आध्यात्मिक मोती पिरोए हुए थे, छिन्न हो गया है तथा विविध पंथ तथा मत केवल अपने ही नाम पर गर्व करने लगे हैं और अपने को हिन्दू कहलाने से इंकार करने लगे हैं। (विचार नवनीत, हमारा जागतिक लक्ष्य)
इससे अधिक दुर्भाग्य की बात और भला क्या होगी कि वर्तमान सिख-नेता अपने पवित्र पंथ को देश और धर्म के कट्टर विनाशकों के समक्ष ला खड़ा करने-हेतु कमर कसते हैं। इतना ही नहीं, तो उन्हीं शत्रुओं से मदद पाने के इच्छुक हैं, जिनके आक्रमणों से मुकाबला कर हमारी रक्षा करने के लिए उनका जन्म हुआ था। हमारे संविधान में स्पष्ट रूप से अंकित है कि हिन्दू के अंतर्गत ही सिख, जैन और बौध्द सम्प्रदाय है।
सर्व-समावेशक 'हिन्दू' शब्द का प्रयोग हो
तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री को 21.08.61 को सुझाव देते हुए लिखते हैं ...
सिख और हिन्दू ऐसे भेदभाव निर्माण करने वाले शब्द-प्रयोगों का सर्वथा त्यागकर, 'हिन्दू' शब्द में शैव, वैष्णव, जैन, बौध्द, सिख, आर्य समाज आदि सब का अन्तर्भाव है, इस तथ्य के अनुरूप ही बोलने-लिखने में सत्यानुकूल सतर्कता बरतने की दक्षता अपने सब कार्य करने वाले महानुभाव व्यवहृत करें, ऐसा सफल प्रयत्न करें, यह मेरी प्रार्थना है।
खण्ड 8 में अंकित पत्ररूप श्रध्दा भी दर्शनीय है :-
श्री गुरु गोविन्दसिंह जी - अखण्ड प्रेरणास्रोत
सम्पादक, दैनिक 'प्रभात', अमृतसर (21 जनवरी, 1942)
... आपके वृत्तपत्र के माध्यम से महान गुरु श्री गोविन्दसिंह के चरणों में विनम्र अभिवादन करता हूँ। श्री गुरु गोविन्दसिंह में संत, संगठक, देशभक्त तथा लोकनेता के गुण समाए हुए थे। उनका आदर्श जीवन, सुप्त हिन्दू समाज के जागरण का अखण्ड प्रेरणास्रोत है। हमारे निद्रालीन, खर्राटे भरने वाले, स्वप्न देखने वाले एवं नींद में ही चलने वाले बंधुओं में सुस्पष्ट पुनर्जागरण हेतु श्री गुरुजी की पवित्र स्मृति को आप जाग्रत कर रहें हैं, इसलिए आपका अभिनन्दन करता हूँ। आपके वृत्तपत्र के मार्गदर्शक श्री मास्टर तारासिंह जी को सादर प्रणाम।
'जीवन'-अमृतपान करायें
श्री महीप सिंह जी, कानपुर (14 फरवरी, 1951)
'दशमेश' का जयंती अंक पढ़कर पूरा किया। अत्यन्त प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ। आज की पथभ्रष्ट हिन्दू जाति को इस महान ब्राह्मक्षात्र-परिपूर्ण श्री गुरु को नमन करने की आवश्यकता है। यह जीवन ही वह जीवन था, जो कि आज भी समाज को मृततुल्य अवस्था से उठाकर जीवन दे रहा है। हम लोग सर्व प्रयत्न करें कि इस 'जीवन' के अमृत का समाज को पान करवाकर उसे समर्थ, सम्पन्न, राष्ट्रजीवन (अमर राष्ट्र जीवन) निर्माण करने में सफल करें।
हिन्दू-सिख अलगाव के भाव हटाएँ
श्री गुरुदेवसिंह नामधारी, लुधियाना (3 मार्च, 1961)
श्री सद्गगुरु जगजीतसिंह महाराज की प्रेरणा तथा मार्गदर्शन होने से सब बंधु सर्व कार्यक्रम उत्साह से करेंगे तथा अपने प्रभाव से सात्विकता, धर्मश्रध्दा का वायुमण्डल फैलाकर क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थ से जो लोग हिन्दू-सिख अलगाव उत्पन्न कर रहे हैं, उस विपरीत भाव को हटा देंगे-इसका मुझे पूर्ण विश्वास है। श्री सद्गगुरु महाराज की हम लोगों पर नित्य कृपा रही है और अभी के श्री सद्गुरु महाराज भी वही कृपा कर रहे हैं। मैं भैणी साहब में अवश्य आता, किन्तु अब समय नहीं है। इस कारण श्री महाराज जी से क्षमा-याचना करता हूँ।
हिन्दू-सिख भेद राष्ट्रविघातक
श्री वी.डी.भाटिया (21 अगस्त. 1961)-(मूल अंग्रेजी)
हिन्दू समाज का संरक्षण करने के लिए सिख पंथ द्वारा किया गया महान् त्याग प्रत्येक हिन्दू कृतज्ञता से स्मरण करता है। जीवित शरीर का एक अंग दूसरे अंग के लिए अवश्य त्याग करेगा। हाँ, यदि वह अंग सजीव शरीर का हिस्सा है, न कि उससे जुड़ा हुआ निर्जीव अवशेष। ...वर्तमान गतिरोध धर्म के कारण नहीं, बल्कि राजनीति की सत्ता-स्पर्धा के कारण है। यह बात देश के सभी प्रदेशों पर लागू होती है। मास्टर तारासिंह की माँगें हों या ई.वी. रामास्वामी नायकर की, दोनो अपने सम्प्रदायों में श्रध्देय हैं। लोग उन्हें देवदूत तथा पथ-संरक्षक के रूप में देखते हैं। दुरुपयोग होने वाले इस शब्द-प्रयोग का जो भी अर्थ हो, उसका शुध्द राजनैतिक संदर्भ है। मैं राजनीति से अलिप्त हूँ, इसलिए जगज्जननी माँ से केवल प्रार्थना करने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकता .....
श्री गुरु गोविंद सिंह समस्त हिन्दुओं के गुरु
डॉ. सूरज प्रकाश, दिल्ली (20 दिसम्बर, 1971)
... आपके द्वारा आयोजित कार्यक्रम बहुत औचित्यपूर्ण है। श्री गुरु गोविंदसिंह सम्पूर्ण हिन्दू समाज के गुरु, मार्गदर्शक हैं; परम वंदनीय हैं। सद्य स्थिति में उनकी वीरगाथा का, उनकी पवित्रता का, त्याग का, धर्मनिष्ठा का श्रध्दा से स्मरण कर अनुसरण करना अतीव आवश्यक है। आपने पूरे समाज को यह स्मरण करने का अवसर देने की योजना बनाई है, जिसके लिए आप सबका अभिनन्दन ...